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________________ कहावत है की पानी सोने से ज्यादा कीमती तथा डाइनेमाइट से अधिक विस्फोटक है। आशय है कि हम पर्यावरण के संसाधनों का आवश्यकतानुसार ही उपयोग करें तथा आवश्यकताओं को निरन्तर सीमित करते जाएँ। (3) संसाधनों का अतिभोग इन दिनों सुविधापरक एवं प्रदर्शनपरक जीवनशैली होने से व्यक्ति की आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं। त्याग के स्थान पर भोग का आधिक्य होने से संसाधनों की वितरण-व्यवस्था बिगड़ जाती है। किसी को खूब सुविधाएँ मिलती हैं और किसी को मात्र अभाव, इससे सामाजिक पर्यावरण भी बिगड़ता है। इसके अतिरिक्त पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़ों आदि कमजोर प्राणियों की तो अत्यधिक उपेक्षा एवं हिंसा होती है। जैनदर्शन में इसीलिए गृहस्थ के लिए अणुव्रतों और साधु के लिए महाव्रतों का विधान है। आचारांग में भोगों में लिप्त मनुष्यों को सावधान करते हुए सम्बोधित किया गया है – 'तुम जिन भोगों या वस्तुओं से सुख की आशा करते हो, वस्तुतः वे सुख के हेतु नहीं हैं। सूत्रकृतांग में दीर्घदर्शितापूर्वक कहा गया है – “भविष्य में तुम्हें कष्ट भोगना न पड़े, इसलिए अभी से अपने आप को भोगों से दूर रखकर अनुशासित करो।' 78 इस प्रकार हमें प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाने एवं सादा, सात्विक तथा सदाचारी जीवन जीने की आवश्यकता है। (4) अपशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित करना ठोस, तरल एवं गैसीय रूप में अपशिष्ट पदार्थों को शुद्ध संसाधनों में प्रवाहित करने से प्रदूषण की समस्या पैदा हो रही है, जो पर्यावरणीय समस्या के लिए 'आग में घी डालने' के समान है। जैनदर्शन में 'प्रतिष्ठापन समिति' के सिद्धान्त द्वारा इसका निषेध किया गया है।" इस प्रकार, मानव को वास्तव में पर्यावरण का नहीं, किन्तु स्वयं का प्रबन्धन करना है। पर्यावरण को सुधारने के बजाय पर्यावरण को नहीं बिगाड़ने की चेतना जाग्रत करनी है, क्योंकि पर्यावरण वह स्वचालित व्यवस्था (Automatic system) है, जो स्वयं तो सन्तुलित ही रहती है, किन्तु मानवीय हस्तक्षेप उसमें असन्तुलन पैदा करता है। यदि मानव कानून के दबाव के बजाय स्वविवेक से ही अपनी जीवनशैली को सुधारे और पर्यावरण के प्रति मातृवत् व्यवहार करे, तो पर्यावरण की समस्याओं का सहज समाधान प्राप्त हो सकता है। वस्तुतः, धरती में अपार शक्ति है, क्योंकि वह पृथ्वी के समस्त प्राणियों के जीवन की पूर्ति कर सकती है, बशर्ते हम सात्विक जीवन जैनदर्शनानुसार जीयें। वर्तमानकालीन पर्यावरणीय समस्याओं एवं उनके मूल कारणों का विश्लेषण करने के पश्चात् आगे जैन-सिद्धान्तों एवं जैनआचारों के आधार पर समाधानपरक चर्चा की जा रही है। ===== ====== 445 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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