________________
8.4 पर्यावरण की समस्याओं एवं पर्यावरण प्रदूषण के मूल कारण
भगवान् महावीर ने कहा है 'हे मानव! तू सत्य को अच्छी तरह परख ले, जान ले। 71 यह कथन इस बात को द्योतित करता है कि किसी भी प्रश्न का समाधान पाने के लिए उसके मूल कारणों (Root cause) को जानना अत्यावश्यक है । वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय समस्या के भयावह प्रभावों से बचने के लिए इसके मूल कारणों को खोजना हमारी प्रमुख आवश्यकता बन गई है।
जैनदर्शन में न केवल पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त रखने की जीवनशैली को दर्शाया गया है, अपितु प्रदूषित पर्यावरण के मूल कारणों को भी चिह्नित कर उनके निराकरण का प्रयास किया गया है।
आज पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करके 'अर्थ' और 'काम' की अत्यधिक लालसाओं के चलते हम मानवीय सीमाओं का व्यर्थ अतिक्रमण कर रहे हैं। पर्यावरण को साधन बना कर सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान और सुविधा की इच्छाएँ पूरी करना चाहते हैं । लोभान्ध होकर पर्यावरण के प्रति क्रूर, कठोर, निर्दय एवं निर्मम होते जा रहे हैं। आर्थिक समृद्धि को ही विकास एवं सुरक्षा का आधार मान रहे हैं। सुविधावादी संस्कृति हमें सुखदायी महसूस हो रही है। 2
परिणामस्वरूप, हम प्रकृति का पोषण एवं दोहन (मर्यादित उपयोग ) करने में नहीं, अपितु शोषण एवं प्रदूषण करने में रत है, जिससे पर्यावरणीय सन्तुलन और स्थिरता भंग हो रही है। 3
सार रूप में कहें, तो पर्यावरणीय विकृति अथवा असन्तुलन का मूल कारण मानव की असन्तुलित जीवनशैली है, जो मानव की अनियन्त्रित एवं अन्तहीन इच्छाओं का परिणाम है। मेरी दृष्टि में, इन मानवीय प्रवृत्तियों को चार प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है
--
(1) संसाधनों का अतिदोहन
अन्धाधुन्ध एवं अनियोजित रूप से उच्च तकनीकों द्वारा सीमित प्राकृतिक संसाधनों का तेज गति से अतिदोहन करने से न केवल इन संसाधनों में कमी आ रही है, बल्कि जलवायु परिवर्तन आदि विषमताएँ भी उत्पन्न हो रही हैं। जैनदर्शन में इसीलिए अल्पारम्भ एवं अल्पपरिग्रहपूर्वक जीने का निर्देश दिया गया है। कहा गया है कि अधिक मिलने पर भी संग्रह न करें तथा परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखें।74
(2) संसाधनों का अपव्यय
एक तरफ संसाधनों के अभाव में जीवन - योग्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं हो रही है और दूसरी ओर संसाधनों एवं सुविधाओं का भरपूर अपव्यय किया जा रहा है। इस अपव्यय से सीमित संसाधनों की आपूर्त्ति दुर्लभ होती जा रही है। जैन - परम्परा में इसीलिए संसाधनों के अनावश्यक एवं असावधानीपूर्वक प्रयोग के लिए निषेध किया गया है। 75 पानी के सन्दर्भ में जैनधर्म में आज भी यह लोकोक्ति है कि पानी का उपयोग घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिए। अन्यत्र भी
जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
20
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
444
www.jainelibrary.org