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________________ (1) पृथ्वी-संसाधन (भूमि-संसाधन) - अन्य संसाधनों की अपेक्षा भूमि का महत्त्व अतुलनीय है, क्योंकि यह वह संसाधन है, जो चिरकाल से जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं मानवसहित सभी प्राणियों की आश्रय-स्थली रही है। आर्थिक-विकास के क्षेत्रों, कृषि अथवा उद्योगों में भूमि के महत्त्व से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। हम कल्पना कर सकते हैं कि यदि लोहे एवं इस्पात का उपयोग बन्द कर दिया जाए, तो प्रायः सभी उद्योग पंगु हो जाएँगे। भूमि में मौजूद खनिज सम्पदा आज किसी भी राष्ट्र की सम्पन्नता का प्रतीक है। यदि आर्थिकक्षेत्र में भूमि आधारित संसाधनों का अधिक महत्त्व है, तो घरेलू क्षेत्र में भी उसका महत्त्व कम नहीं है। घरों में प्रयुक्त खाद्य खनिज, जैसे – सैंधा नमक, काला नमक, सज्जी, संचोरा (क्षार) आदि, भवनोपयोगी पदार्थ, जैसे - बालू, सीमेंट बनाने का पत्थर, ग्रेनाइट, संगमरमर, लोहे की छड़ आदि तथा अन्य उपयोगी खनिज, जैसे - स्वर्ण, चाँदी, चूना (केल्शियम), ताँबा, पीतल (मिश्रित धातु), एल्युमिनियम आदि सभी का आधार भूमि ही है। सचमुच , भगवान् महावीर ने पृथ्वीकायिक जीवों को अभय प्रदान करने अर्थात् पृथ्वी के संरक्षण हेतु जो निर्देश दिए हैं, वे सार्थक ही हैं।" (2) जल-संसाधन – जीवन का प्राथमिक और प्रमुख आधार जल है। जल ही जीवन है, वही शरीर की समस्त जैविक क्रियाओं का उत्प्रेरक है।12 इतना ही नहीं, जल के बिना मनुष्य तो दूर पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े भी जीवित नहीं रह सकते। पेयजल की आपूर्ति न होने पर उत्पन्न होने वाले कोलाहल से कौन अपरिचित होगा। यह न केवल जीवनदायी तत्त्व है, अपितु अनेक आर्थिक क्रियाओं, जैसे – कृषि, उद्योग, विद्युत उत्पादन, जल-परिवहन आदि का महत्त्वपूर्ण घटक है। इस प्रकार जल का अप्रतिम महत्त्व सर्वविदित है। अतः जैन-परम्परा में एक बूँद जल का भी अपव्यय नहीं करने का निर्देशन पर्यावरण-संरक्षण के लिए उपयुक्त है। (3) अग्नि-संसाधन - इसका महत्त्व भी अनुपम है, क्योंकि इससे प्राप्त ताप एवं प्रकाश ऊर्जा (Heat and Light Energy) के विविध प्रयोग किए जाते हैं। इतना ही नहीं, ऊर्जा का रूपान्तरण करके विद्युतीय ऊर्जा (Electric Energy), चुम्बकीय ऊर्जा (Magnetic Energy) आदि की प्राप्ति भी हो जाती है, जिसका प्रयोग उद्योग-धंधों, कृषि, परिवहन, संचार, मनोरंजन आदि में किया जाता है। जैन–परम्परा में अग्नि का विशिष्ट महत्त्व स्वीकार करते हुए अग्नि-स्रोतों का प्रयोग करने के लिए साधु को सर्वथा एवं गृहस्थ को अंशतः निषेध किया गया है, जो आज भी अनुकरणीय है। (4) वायु-संसाधन - वायु वह संसाधन है, जिसके बिना मानवसहित अनेकानेक प्राणियों का क्षण भर भी जीवन नहीं चल सकता, इसीलिए श्वास लेने पर वायु में से शोषित ऑक्सीजन, जो रक्त को शुद्ध करती है, को 'प्राणवायु' भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त, ओजोन परत भी वायु का ही उपकार है, जो छतरीनुमा आकार में सुरक्षा कवच बनकर ब्रह्माण्ड एवं सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी (Ultra Violet Rays), गामा तथा एक्स किरणों तथा ब्रह्माण्डीय किरणों को पृथ्वी सतह पर आने से 429 अध्याय 8: पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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