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8.2 पर्यावरण का सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वजनिक महत्त्व
__ आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वाति ने पर्यावरण की जिन विशेषताओं को दर्शाया, उनसे पर्यावरण की महत्ता स्वतः ही प्रकट हो जाती है। ये विशेषताएँ हैं – क्रियात्मकता, गत्यात्मकता और परस्पर-आश्रितता। (1) क्रियात्मकता - पर्यावरण के प्रत्येक घटक का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है अर्थात् कोई भी घटक ऐसा नहीं है, जो निष्क्रिय और अर्थहीन हो। चाहे वन हो या भूमि, जल हो या अग्नि, वायु हो या अन्य प्राणी, इन सभी का प्रयोजन अवश्य है। हमें चाहिए कि पर्यावरण के घटकों का समुचित मूल्यांकन कर सकें। (2) गत्यात्मकता' – पर्यावरण का प्रत्येक घटक प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् कोई भी घटक ऐसा नहीं है, जिसमें अवस्थान्तरण नहीं हो रहा है। चाहे समुद्र हो या सरिता, पर्वत हो या समतल भूभाग (मैदान, पठार आदि), मरुस्थल हो या वनभूमि, पर्यावरण के प्रत्येक घटक में गत्यात्मकता या परिवर्तनशीलता है। यह विशेषता पर्यावरणीय गुणवत्ता में सुधार की सम्भावनाओं को प्रकट करती है। कैसी सुन्दर एवं सकारात्मक व्यवस्था पर आधारित है हमारा पर्यावरण! हमें चाहिए कि पर्यावरण-प्रबन्धन की प्रक्रिया के द्वारा पर्यावरणीय हास की अपेक्षा विकास का प्रयास करें। (3) परस्पर-आश्रितता' – पर्यावरण एवं मानव के बीच तथा पर्यावरण के विविध घटकों के बीच परस्पर-निर्भरता है – परस्परोपग्रहो जीवानाम् । ये तत्त्व एक-दूसरे से प्रभावित होते रहते हैं, जैसे - जीवन पर पुद्गल का उपकार है। इस विशेषता के कारण से ही मानव अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति पर्यावरण के माध्यम से कर पाता है। चाहे आवास हो या आहार, प्राणवायु हो या पेयजल, औषधियाँ हो या सजावटी सामान, वाहन हो या संचार के उपकरण, इन सभी की आपूर्ति प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रकृति-प्रदत्त उपहारों से ही होती है। हमारा यह नैतिक कर्त्तव्य है कि यदि पर्यावरण हमारे जीवन को सुरक्षा प्रदान करता है, तो हम भी उसका संरक्षण करने का अधिकाधिक प्रयास करें। 8.2.1 प्रकृति-प्रदत्त अमूल्य उपहारों का मानव जीवन में उपकार
यह एक अद्भुत सत्य है कि पर्यावरण के रूप में सहज उपलब्ध संसाधनों का हमारे जीवन में अनुपम उपकार है। इनके बिना जीवन-अस्तित्व एवं जीवन-विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भगवान् महावीर ने इन प्राकृतिक संसाधनों को छह श्रेणियों में विभक्त किया है – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस (जीव-जन्तु)।' उन्होंने न केवल इनके आश्रित जीवन के अस्तित्व को, अपितु स्वयं इनमें भी जीवन सत्ता को स्वीकार किया है। इनके समुच्चय को जैन-परम्परा में ‘षड्जीवनिकाय' कहा जाता है। इनका महत्त्व इस प्रकार है -
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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