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________________ • मृत्यु से सदा भयभीत रहना। • अत्यधिक कष्ट या पीड़ा आने पर मृत्यु की कामना करना। • मृत्यु न आए, इस हेतु निरन्तर चिन्ताशील रहना इत्यादि। ★ नामकर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार - इस कर्म के निमित्त से व्यक्ति की शारीरिक संरचना होती है, इसे लेकर भी व्यक्ति अनावश्यक राग-द्वेष करता रहता है, जैसे - • शरीर की सुन्दरता के लिए सतत चिन्तित रहना। • वृद्धावस्था के लक्षण दिखने पर दुःखी हो जाना। • शारीरिक सौष्ठव एवं सौन्दर्य पर प्रफुल्लित एवं हर्षित होना इत्यादि। ★ गोत्र कर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार – इस कर्म के उदय से जीव अच्छे या बुरे परिवेश में जन्म लेता है, किन्तु मूढ़तावश इसके निमित्त से भी व्यक्ति अनावश्यक तनाव के कारक खोज ही लेता है, जैसे - • श्रेष्ठ कुल में जन्म होने पर हर्षित होना। • निम्नकुल में जन्म होने पर विषाद करना। • अन्य कुल वालों से घृणा करना। • कुल के नाम पर अन्य लोगों से वैर-विरोध और विद्वेष करना इत्यादि। इस प्रकार, जैनदर्शन में वर्णित कर्म-सिद्धान्त यह बताता है कि व्यक्ति को जो भी अंतरंग एवं बहिरंग परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उसके द्वारा संचित कर्मों का ही परिणाम है।141 फिर भी मन-प्रबन्धन के अभाव में व्यक्ति इन कर्मों के परिणामों को निमित्त बनाकर अनेक प्रकार के तनावों एवं मनोविकारों को उत्पन्न कर लेता है। प्रश्न उठता है कि कर्मजन्य परिस्थितियाँ किस प्रकार से मनोविकारों की उत्पत्ति का कारण बन जाती हैं? इस प्रश्न का गम्भीरतापूर्वक चिन्तन आवश्यक है, क्योंकि एक समान कर्मजन्य परिस्थितियाँ मिलने पर भी कोई उनके अधीन होकर मनोविकारों से ग्रसित हो बैठता है, तो कोई उन्हें अधीन बनाकर मनोविकारों से मुक्त भी हो जाता है। 12 जैनदर्शन के अनुसार, प्रत्येक मनोविकार का प्रारम्भ परिस्थिति या घटना के मूल्यांकन के साथ होता है। व्यक्ति को अनेक स्रोतों से ज्ञान या सूचनाओं की प्राप्ति होती है। ये सूचनाएँ या संकेत इन्द्रियों के विषयों अर्थात् स्पर्श, स्वाद, गन्ध, दृश्य एवं शब्द के रूप में भी होते हैं, तो मन के विषय अर्थात् स्मृति, चिन्तन, कल्पना, विचार आदि के रूप में भी होते हैं। कभी ये संकेत शारीरिक संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं, तो कभी आत्मिक संवेदनाओं (भावों) को। शारीरिक संवेदनाओं के द्वारा शरीर की स्वस्थता-अस्वस्थता, क्षुधा-तृषा, स्फूर्ति-थकान आदि के, तो आत्मिक संवेदनाओं के द्वारा आत्मा की मान्यता (दृष्टिकोण), संज्ञाओं (मूल-प्रवृत्तियों), सुख-दुःख, उत्साह (रुचि) आदि के संकेत 405 अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन 43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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