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• स्वयं के अज्ञान का दुःख होना। • अधिक ज्ञानवान् से ईर्ष्या करना। • इन्द्रियों के शिथिल होने पर दुःखी होना। • अधिक जानने पर गर्व करना। • विशेष जानने के लिए सदैव आकुल-व्याकुल होना।
• "भूल न जाऊँ' इससे भयभीत रहना इत्यादि। ★ मोहनीय कर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार - यह कर्म जीव के व्यवहार को भ्रमित बनाने में निमित्त बनता है। मन के सम्यक प्रबन्धन के अभाव में व्यक्ति मोहवश अनेक मानसिक विकारों को पाल लेता है. जैसे -
• सन्मार्ग में अरुचि तथा कुमार्ग में तीव्र रुचि होना। • क्रोधावेश में हिंसा, वैर, वध आदि दुष्कार्य कर बैठना। • मानवश स्वयं को ऊँचा तथा अन्यों को नीचा दिखाने की कुचेष्टा करना। • कुटिल व्यवहार करना।
• इन्द्रिय-विषयों में लोलुप रहना इत्यादि। ★ अन्तराय कर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार – यह कर्म जीव के पुरूषार्थ को बाधित करता है, इसके निमित्त से अनेक प्रकार के मनोविकार उत्पन्न होते हैं, जैसे -
• कार्य न होने पर बाह्य निमित्तों को दोष देना। • सामर्थ्य की कमी होने पर शोकाकुल होना।
• शक्ति होने पर उसका दुरुपयोग करना इत्यादि। ★ वेदनीय कर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार – इस कर्म के निमित्त से सुख-दुःख के बाह्य कारणों का संयोग होता है, किन्तु मन-प्रबन्धन की अकुशलतावश व्यक्ति इन कारणों में आसक्त होकर मनोविकार उत्पन्न कर लेता है, जैसे -
• रोग-पीड़ादि होने पर आकुल-व्याकुल होना। • सुखी होने के लिए अकरणीय कृत्य करना, जैसे-रिश्वत लेना आदि। • सुख-आरोग्य मिलने पर गलत प्रवृत्तियों में संलग्न होना, जैसे – शराब पीना आदि।
• दुःख मिलने पर दूसरों पर दोषारोपण करना इत्यादि । * आयुष्य कर्म एवं तज्जन्य तनाव तथा मनोविकार – इस कर्म के संयोग से जीव की स्थिति किसी निश्चित शरीर में नियत अवधि तक बनी रहती है। इसके निमित्त से भी अज्ञानी व्यक्ति तनाव एवं मनोविकारों को उत्पन्न कर लेता है, जैसे --
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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