________________
पर आगे बढ़ने की प्राथमिक शर्त है।
व्यवहारभाष्य में भी यह उल्लेख है कि मन ही बन्धन एवं मुक्ति का हेतु है, न कि बाह्य विषय । किसी विषय का संयोग मिलने पर एक व्यक्ति उसमें आसक्त हो जाता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उससे विरक्त रहता है। इससे सिद्ध है कि बाह्य विषय महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु व्यक्ति के अंतरंग परिणाम महत्त्वपूर्ण हैं। यह मानना होगा कि मन से ही विषयों के प्रति आसक्ति की जाती है और मन से ही विरक्ति भी। अतः व्यक्ति की मानसिक वृत्तियाँ ही बन्धन एवं मोक्ष दोनों का साधन है। 2
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, अपितु व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी मन की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। वस्तुतः, जैन दार्शनिकों ने मन का जो बहुआयामी स्वरूप दर्शाया है, उससे स्वतः ही यह सिद्ध हो जाता है कि जीवन का प्रत्येक व्यवहार मन के आश्रित ही सम्पादित होता है। इन्द्रियों का कार्य तो केवल बाह्य विषयों का संकेतात्मक ज्ञान देना है, परन्तु मन इन संकेतों का संवेदन, विश्लेषण, समीक्षण, मूल्यांकन, निर्णयन आदि अनेकानेक कार्य करता है। यदि मन न हो तो क्या उचित है, क्या अनुचित है, यह विवेक (Reasoning) असम्भव है। जैन दार्शनिकों ने इसीलिए मन को सर्वदा विवेक क्षमता युक्त यंत्र के रूप में ही ग्रहण किया है।
जीवन का प्रत्येक व्यवहार तभी प्रबन्धित हो सकता है, जब मन अपना कार्य सही ढंग से सम्पादित करे। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि मन का सम्यक् प्रबन्धन जीवन-प्रबन्धन का सबसे प्राथमिक पक्ष है। सम्यक् मन-प्रबन्धन ही जीवन में शिक्षा, समय, वाणी आदि पहलुओं के सम्यक् प्रबन्धन का मूल आधार है।
मन का महत्त्व आज सर्वत्र स्वीकार है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने जीवन-व्यवहार में परिलक्षित होने वाले अनेकानेक कार्यों का विश्लेषण किया है, जो केवल मनाश्रित ही होते हैं, जैसे - ★ प्रत्यक्षण (Perception)
★ अभिप्रेरण (Motivation) ★ अवधान (Attention)
* संवेग (Emotion) ★ सीखना (Learning)
★ बुद्धि (Intelligence) ★ स्मृति (Memory)
★ अभिवृत्ति (Aptitude) ★ चिन्तन (Thinking)
* सृजनात्मकता (Creativity) ★ निर्णय प्रक्रिया (Decision making) ★ समस्या समाधान व्यवहार (Solution ★ अवधारणा निर्माण (Conception)
Oriented behaviour) जैनदर्शन में भी इसी प्रकार मन के बुद्धि , उत्साह, उद्योग, भावना आदि अनेकानेक कार्यों का उल्लेख किया गया है, जो मन की महत्ता का स्पष्ट दिग्दर्शन करता है।
निष्कर्ष यह है कि मन का महत्त्व सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वजनिक है, अतः जीवन-प्रबन्धन के लिए मन को समझना और उसका सदुपयोग करना एक अनिवार्य कर्त्तव्य है। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
374
12
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org