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यद्यपि जैनाचार्यों ने सम्पूर्ण ज्ञानात्मक प्रक्रिया को संक्षेप में उपर्युक्त चार बिन्दुओं के माध्यम से समझाया है, तथापि विस्तार - रुचि वाले जीवों के लिए अवग्रहादि के उपभेदों की भी चर्चा की है, जो नन्दीसूत्र के आधार पर इस प्रकार है".
मन 1) श्रवणता - विषय का सामान्य बोध होना।
अवग्रह 2) अवलंबनता - ईहादि तक पहुँचने के लिए सामान्य से विशेष की ओर अग्रसर होना। 3) मेघा - सामान्य में विशेष को ग्रहण करना।
मन
ईहा
मन धारणा
1) आभोगन्ता विशेष ज्ञान की ओर अभिमुख होकर विषय की समीक्षा करना।
2) मार्गणता विधि और निषेध के द्वारा विषय की खोज करना ।
3) गवेषणता
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करना ।
4) चिन्ता
पुनः पुनः विशेष चिन्तन करना।
5) विमर्श विधेयात्मक धर्मों को ग्रहण कर स्पष्टतया विचार करना ।
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मन
1) आवर्त्तनता - निश्चयात्मक ज्ञान के सम्मुख होना। अवाय 2) प्रत्यावर्तनता निश्चयात्मक ज्ञान के सन्निकट पहुँचना ।
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3) अवाय पदार्थ का पूर्ण निश्चय करना।
4) बुद्धि - निश्चित ज्ञान को और अधिक स्पष्टता से जानना। 5) विज्ञान
1) धारणा
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निषेधात्मक धर्मों का त्याग कर एवं विधेयात्मक धर्मों के आधार पर विषय का पर्यालोचन
तीव्र धारणा के लिए कारणभूत विशिष्ट निश्चयात्मक ज्ञान करना।
2) सा-धारणा 3) स्थापना
4) प्रतिष्ठा – अर्थ को भेद - प्रभेद सहित हृदय में स्थापित करना ।
5) कोष्ठ
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अवाय द्वारा सुनिश्चित अर्थ का सतत प्रवाहित होना एवं उससे उत्पन्न संस्कारों का समय-समय पर स्मरण होना ।
इस प्रकार, ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धिशील अवस्थाओं में मन प्रमुख भूमिका निर्वाह करता है । इसके बिना होने वाला केवल इन्द्रियाश्रित ज्ञान इतने व्यापक स्तर तक नहीं पहुँच सकता ।
जैनाचार्यों ने मन के अन्य भी अनेकानेक कार्य बताए हैं, जो मन के सम्यक् प्रबन्धन के लिए अवश्य जानने योग्य हैं
अर्थ को स्मरणपूर्वक कुछ समय तक धारण करना।
अर्थ को हृदय में स्थापित करना, इसे वासना (संस्कार) भी कहते हैं।
1) मति किसी विषय का मनन करना ।
2) स्मृति पूर्व में जानी हुई वस्तु का स्मरण करना ।
3) प्रत्यभिज्ञान
पहले अनुभव की हुई एवं वर्त्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु के मध्य समानता का बोध होना, जैसे यह वही है, जिसे पहले जाना था।
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कोठे में रखे सुरक्षित धान्य के समान निर्णीत अर्थ को हृदय में सुरक्षित रखना।
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अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन
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