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________________ इस प्रकार, जैनदर्शन के अनुसार, मन चेतन भी है और अचेतन भी। मनन करने में सहयोगी पुद्गल (जड़) पदार्थ द्रव्यमन है तथा मनन करने वाला जीव (चेतन) भावमन है। दोनों के संयोग से ही समस्त मानसिक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। (3) मन का स्थान - जैनदर्शन में द्रव्य-मन के स्थान से सम्बन्धित दो विचारधाराएँ हैं। दिगम्बर परम्परा ने मन को हृदय में स्थित अष्टदल कमल की आकृति वाला माना है और श्वेताम्बर परम्परा ने इसे सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त बताया है। अनेकान्त-दृष्टि से दोनों मान्यताओं में एकरूपता ही प्रतीत होती है। स्नायु तन्तुओं का जाल पूरे शरीर में फैला है, अतः मन शरीर-व्यापी है और मेरुरज्जु की धारा हृदय को छूती है, अतः मन हृदय-प्रतिष्ठित है।" भाव-मन का स्थान तो दोनों ही परम्पराओं में आत्मा को माना गया है। (4) मन के कार्य - जैनदर्शन की सूक्ष्म दृष्टि में मन स्वतंत्र नहीं, अपितु एक यंत्र (उपकरण) के समान है, जो आत्मा रूपी यंत्री के अधीन रहता है तथा आत्मा के विविध कार्यों में निकटतम सहयोगी बन कर कार्य करता है। मेरी दृष्टि में, मन की तुलना संगणक (Computer) यंत्र से की जा सकती है। जैसे कम्प्यूटर विविध कार्यों को सम्पादित करके प्रयोगकर्ता को सहयोग देता है, वैसे ही मन अपने विकसित रूप में जीव को चिन्तन-मनन आदि करने में सहयोग देता है। आधुनिक मनोविज्ञान में मन के कार्यों के स्थूलरूप से तीन विभाग किए गए हैं – 1) ज्ञानात्मक (Knowing) 2) भावात्मक (Feeling) 3) क्रियात्मक (Willing)। इसी तरह जैनदर्शन में भी मन के बहुआयामी कार्यों को दर्शाया गया है, जैसे – ज्ञानात्मक (चिन्तनात्मक), दर्शनात्मक (अनुभूत्यात्मक) एवं आचरणात्मक (क्रियात्मक या संवेदनात्मक) इत्यादि । मन के सहयोग से होने वाली ज्ञानात्मक प्रक्रिया इस प्रकार है - (क) अवग्रह – मन के द्वारा विषय का आंशिक या प्राथमिक ज्ञान होना, जैसे – 'यह कुछ है'। (ख) ईहा – गृहीत विषय को विशेष रुप से जानने के लिए विचार करना, जैसे – 'यह अमुक वस्तु है या और कुछ'। (ग) अवाय - ईहा के द्वारा विचार किए गए विषय का निश्चय करना, जैसे – 'यह अमुक वस्तु ही है'। (घ) धारणा – निश्चयात्मक ज्ञान को कालविशेष तक कायम रखना। अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा - ये चारों कार्य क्रम से होते रहते हैं। मन-प्रबन्धन के लिए यह जरूरी है कि अवग्रहादि में सम्यक् रूप से ही प्रयत्न किया जाए, जिससे जीवन में सुख, शान्ति और आनन्द की अभिवृद्धि हो सके। यदि अवग्रह आदि से विषय का बोध गलत रूप से होता है, तो जीवन में दुःख, निराशा एवं कुण्ठा की अभिवृद्धि हो जाती है, जो मन-प्रबन्धन के लिए अवांछनीय है। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 368 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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