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________________ 207 अप्रस्तुतार्थापकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच्च निक्षेप फलवान् – लघीयस्त्रयी, 1/2 (जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 77 ___ से उद्धृत) 208 तत्त्वार्थसूत्र, पं.सुखलाल संघवी, 1/5 209 नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः - तत्त्वार्थसूत्र, 1/5 210 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 77 211 वही, पृ. 78 212 भूतस्य भाविनो वा भावस्य कारणं यन्निक्षिप्यते स द्रव्यनिक्षेपः __ - जैनतर्कभाषा, निक्षेपपरिच्छेद, पृ. 64 213 तत्त्वार्थसूत्र, रामजीभाई दोशी, 1/5 214 साधक तीन निक्षेपा मुख्य, जे विणु भाव न लहिए रे। उपगारी दुग भाष्ये भाख्या, भाववंदक नो ग्रहिए रे।। - श्रीमद्देवचन्द्र, वर्तमान चौबीसी, 16/6 215 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 79 216 तत्त्वार्थसूत्र, रामजीभाई दोशी, 1/33, पृ. 95 217 शुक्रनीति, 3/115 181 अणुसासिओ न कुप्पेज्जा - उत्तराध्ययनसूत्र, 1/9 182 वीरप्रभु के वचन, रमणलाल ची. शाह, 1/13/119 183 कल्पसूत्र, आ.आनन्दसागरजी म.सा., पाँचवीं वाँचना, पृ. 223 184 उपदेशमाला, पृ. 139 185 जैनभारती (पत्रिका), अक्टूबर, 2002, मत बोलो अणगमती वाणी, पृ. 50 186 अष्टप्रवचनमातासज्झाय सार्थ, ढाल 7/10 187 वही, ढाल 7/1 188 जैनभारती (पत्रिका), अगस्त, 2004, बोलो वचन विचार, पृ. 35 189 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 73 190 जीवन की मुस्कान (द्वितीय महापुष्प), डॉ.प्रियदर्शनाश्री, पृ. 61 191 (अ) स्याद्वादमंजरी, पृ. 243 (ब) नयोज्ञातुरभिप्रायः - लघीयस्त्रयी, 55 (जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 73 से उद्धृत) 192 जावइया वयणपहा। लावंति होति नयवाया - सन्मतितर्क, 3/47 193 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 74 194 सर्वार्थसिद्धि, 1/33 195 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 74 196 वही, पृ. 75 197 लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार - तत्त्वार्थभाष्य, 1/35 198 वर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्र प्राधान्यतः सूचयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रः - जैनतर्कभाषा, नयपरिच्छेद, पृ. 61 199 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 75 200 वही, पृ. 75 201 कालादिभेदेन ध्वनेरर्थ भेदं प्रतिपाद्यमानः शब्दः । ___ कालकारक लिंग सङ्ख्यापुरुषो पसर्गाः कालादयः ।। - जैनतर्कभाषा, नयपरिच्छेद, पृ. 61 202 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 76 203 पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहन समभिरूढः - जैनतर्कभाषा, नयपरिच्छेद, पृ. 62 204 जैनभाषादर्शन, डॉ.सागरमलजैन, पृ. 76 205 वही, पृ. 76 206 वही, पृ. 77 58 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 362 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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