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________________ 6) समभिरूढनय02 – यह नय एक ही वस्तु के पर्यायवाची शब्दों को व्युत्पत्ति की दृष्टि से भिन्न-भिन्न अर्थ का सूचक मानता है। 203 उदाहरणार्थ, राजा, नृप, भूपति आदि एकार्थक शब्दों के भी यह नय अलग-अलग अर्थ करता है, जैसे – राजचिह्नों से शोभित 'राजा', मनुष्यों का पालन करने वाला 'नृप', और भूमि का स्वामी 'भूपति' कहलाता है। श्रोता को चाहिए कि वह समभिरूढ़नय से प्रयुक्त कथन अथवा शब्द का विश्लेषण व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ के आधार पर करे, जिससे वह वक्ता के आशय को समुचित ढंग से समझ सके। 7) एवंभूतनय204 – यह नय शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण उसकी वर्तमानकालिक क्रिया के आधार पर करता है। यह शब्द का व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ भी तभी स्वीकार करता है, जब तदनुरूप क्रिया घटित हो रही हो। उदाहरणतः, कोई राजा जिस समय राजदण्ड, छत्र, चँवर आदि राजचिह्नों से सुशोभित हो, उसी समय उसे राजा कहा जा सकता है। एक अध्यापक जिस समय अध्यापन कार्य कर रहा हो, तभी अध्यापक कहा जा सकता है। सफल श्रोता के लिए आवश्यक है कि वह एवंभूतनय द्वारा प्रयुक्त शब्द को उसी सन्दर्भ में सम्यक् प्रकार से ग्रहण करे। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैनदर्शन का यह नय-सिद्धान्त वाक्य-संरचना, वक्ता की शैली और तात्कालिक सन्दर्भो के आधार पर वक्ता के अभिप्राय को समझने का सही माध्यम है।205 (ख) निक्षेप206 - जैनदर्शन में यदि वाच्यार्थ का सम्यक् निर्धारण करने के लिए नय-सिद्धान्त है, तो शब्दविशेष के अर्थ का सम्यक निर्धारण करने हेतु निक्षेप-सिद्धान्त है। अन्य प्रकार से कहें तो सन्दर्भ के आधार पर शब्द के अर्थ का निश्चय करने को निक्षेप कहते हैं। कहा भी गया है कि शब्द के अप्रस्तुत अर्थ का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का निरूपण जिसके द्वारा किया जाता है, वही निक्षेप है।207 निक्षेप का ही अपर नाम 'न्यास' है। पं. सुखलालजी के अनुसार, “समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है। भाषा शब्दों से बनती है। एक ही शब्द प्रयोजन या प्रसंग के अनुसार अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ मिलते हैं। ये चारों ही उस शब्द के अर्थ-सामान्य के चार विभाग हैं, जिन्हें निक्षेप या न्यास कहते हैं। इन्हें जान लेने पर ही वक्ता का सही आशय समझा जा सकता है। 208 ये चार निक्षेप इस प्रकार हैं – 1) नाम, 2) स्थापना, 3) द्रव्य और 4) भाव।209 1) नामनिक्षेप210 – लोक-व्यवहार के प्रयोजन से किसी का नामकरण करना ही नामनिक्षेप कहलाता है। इस नामकरण की प्रक्रिया में न तो नाम के अनुरूप गुणों का विचार किया जाता है और न ही उसके लोकप्रचलित अर्थ का। यह तो केवल किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, काल, घटना अथवा भाव की पहचान के लिए रखा जाता है। उदाहरण के लिए, किसी डरपोक व्यक्ति का नाम भी बहादुर सिंह 46 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 350 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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