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________________ साधन है। लाओत्से ने तो यहाँ तक कह दिया कि जैसे रोती हुई चिड़िया के लिए घोंसला विश्राम-स्थल है, वैसे ही अशान्त एवं तनावग्रस्त व्यक्ति के लिए मौन विश्राम-स्थल है। मौन से व्यक्ति को आत्मिक आह्लाद की अनुभूति भी होती है। समय-प्रबन्धन करने के लिए भी मौन अत्यावश्यक है। मौन का अभ्यासी कई झगड़ों-झंझटों से भी अपने आप को बचा लेता है और विशेष शान्ति का अनुभव करता है। कई बार हमें यह एहसास होता है कि 'यहाँ पर मैं बोला ही क्यों? फालतू राई का पर्वत बन गया'।185 जैनाचार्यों ने मौन की उपादेयता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'मौन तो आत्मा का सहज स्वभाव है।' 186 जहाँ वचन-व्यवहार है, वहाँ कर्म-बन्धन है और जहाँ कर्म-बन्धन है, वहाँ संसार-परिभ्रमण है। अतः मौन कर्मबन्धन से बचने का सन्मार्ग है।187 इस प्रकार मौन मानव-जीवन की विवशता नहीं, वरन् मानव-जीवन का अलंकार है। यह तो व्यक्ति के व्यक्तित्व को तेजस्वी, ओजस्वी और यशस्वी बनाता है। 6.6.7 वक्तृत्व के साथ श्रवणकला का सम्यक् समन्वय अभिव्यक्ति-प्रबन्धन के लिए वक्तृत्वकला के साथ-साथ श्रवणकला का विकास भी अत्यन्त आवश्यक है। सही ढंग से श्रोतापने का विकास किए बिना सम्यक् अभिव्यक्ति करना भी असम्भव है। वस्तुतः, कुशल श्रोता ही कुशल वक्ता बन सकता है। कुशल श्रोता ही वक्ता के अभिप्राय , वक्ता की कथनशैली और तात्कालिक सन्दर्भ के आधार पर शब्द अथवा कथन के सही अर्थ को समझ पाता है। यह मान्यता भ्रामक है कि अभिव्यक्ति-प्रबन्धन के लिए केवल बोलने की कला ही सब कुछ है। किसी दृष्टि से तो सुनने की कला का महत्त्व बोलने की कला से भी अधिक है, क्योंकि वक्ता का आशय सम्यक् प्रकार से समझे बिना हम अपनी अभिव्यक्ति की प्रस्तुति सम्यक् प्रकार से कैसे कर सकेंगे? कदापि नहीं। अतः जैनाचार्यों ने शब्द अथवा कथन के सही अर्थ को समझने पर अत्यधिक जोर दिया है। आवश्यकता है कि हम सिर्फ वक्ता के शब्दों की ओर ही न जाएँ, अपितु वक्ता के अभिप्राय को भी समझें। उदाहरण के लिए ‘पधारिए' शब्द भारतीय संस्कृति का द्योतक और शिष्ट व्यक्तियों द्वारा सामान्य रूप से प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है, किन्तु इसके दो विशिष्ट प्रयोग हैं - पहला 'आने' के अर्थ में और दूसरा ‘जाने' के अर्थ में। यहाँ पर दोनों अर्थ विलोमार्थी हैं, अतः सही श्रोता वही है, जो वक्ता के शब्द की ओर ही नहीं जाए, बल्कि उसके सही अभिप्राय को भी समझे। तभी श्रोता सफल एवं स्वस्थ संप्रेषण में सहयोगी बन सकता है।188 ___यदि श्रोता वक्ता के सही अभिप्राय को समझने में भूल करता है, तो इससे परस्पर मतभिन्नता एवं मनभिन्नता पैदा हो जाती है। यह वर्तमान युग की ज्वलन्त समस्या है। आज इससे ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गलतफहमी, मनोमालिन्य, मनमुटाव, बिखराव एवं अन्ततः विघटन की स्थितियाँ निर्मित हो रही हैं। भाई-भाई, पिता-पुत्र, माँ-बेटी, पति-पत्नी, सास-बहू, अड़ोसी-पड़ोसी, गुरु-शिष्य, स्वामी-नौकर आदि अनेकानेक नाजुक एवं निकट के सम्बन्धों में भी आत्मीयता का ह्रास हो रहा है। परस्पर स्वस्थ-संवाद के स्थान पर विवाद अथवा असंवाद तूल पकड़ अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 347 42 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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