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________________ घोड़े के समान हमारी विचार-तरंगे प्रवाहित होती ही रहती हैं। श्मशान-भूमि पर जहाँ वैराग्यवर्धक वातावरण होता है, वहाँ भी मौन नहीं रख पाना व्यक्ति की संकुचित और अव्यावहारिक मानसिकता का द्योतक है। वाचाल व्यक्ति इस गलतफहमी में रहता है कि अधिक बोलना उसके व्यक्तित्व की विशिष्टता है, लेकिन अक्सर वह निन्दा और उपहास का पात्र बन जाता है, उसकी वाणी की प्रियता समय के साथ-साथ घटती जाती है। अधिक और लगातार बोलने से व्यक्ति की चिन्तनशीलता, स्मरणशक्ति, निर्णय क्षमता का ह्रास होता है। खलील जिब्रा ने कहा भी है – 'In much talking, thinking is half murdered' अर्थात् अधिक बोलने से विचार अधमरे हो जाते हैं। इस प्रकार जीवन के ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं, जहाँ सामान्य रूप से मौन रहना ही श्रेयस्कर है।182 मौन में स्व–पर कल्याण की पावन भावना को साकार करने की भी अमोघ शक्ति है। भगवान् महावीर से किसी ने बैलों के विषय में जब पूछा – हे महात्मन्! क्या आपने मेरे बैलों को जाते हुए देखा? भगवान् महावीर चाहते तो बता सकते थे, लेकिन किसी प्राणी की स्वतंत्रता को क्योंकर बाधित करते, अतः मौन रह गए। यह मौन सम्बन्धी विवेक की प्रेरक-घटना है।183 भले ही मारणान्तिक कष्ट सहना पड़े, लेकिन मौन को नहीं छोड़ना, यह जैनाचार्यों के जीवन-चरित्र से सहज ही ज्ञात होता है। ऐसी ही एक हृदयस्पर्शी घटना है – मेतार्यमुनि की। आहार प्राप्ति के आशय से वे एक स्वर्णकार (सोनी) के घर पहुंचे। वह सोनी तत्काल सुपात्रदान के उल्लसित भावों से भीतर घर में घुसा। बाहर स्वर्णनिर्मित जौ के दाने रखे थे। एक क्रौंच पक्षी उसी अन्तराल में उड़ते हुए वहाँ पहुँचा, जौ के दाने चुगे और सामने एक पेड़ की शाखा पर बैठ गया। वह सोनी मुनिश्री को बुलाने के लिए जैसे ही बाहर आया, तो उसे जौ के दाने नहीं दिखे। उसी समय शंका-कुशंका के बादल छा गए। लोभान्ध होकर मुनि से पूछा – 'मेरे जौ के दाने कहाँ गए? मुनि ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें मालूम था कि 'यदि मैनें बता दिया, तो आज क्रौंच पक्षी की मौत सुनिश्चित है।' मन में निःस्वार्थ करुणा उपजने लगी। मुनि मौन रह गए। मुनि को पाखण्डी चोर जानकर सोनी अति आक्रोश में आ गया और एक गीले चर्म का पट्टा मुनिश्री के ललाट पर बाँध दिया। प्रचण्ड धूप में चर्म-पट्टा सूखने लगा। पट्टा जैसे-जैसे सूखता गया, वैसे-वैसे सिकुड़ता गया। मुनिश्री शान्त और अविचल रहे। सिर कसता गया, असह्य कष्ट होने लगा, लेकिन मुनिश्री का मौन नहीं टूटा और समता भाव बना रहा। कुछ ही क्षणों में उनका प्राणान्त हो गया। इतने में एक लकड़हारिन उधर से लकड़ी का ढेर लेकर निकली। वृक्ष की छाया में कुछ देर विश्राम करने के लिए उसने अपना गट्ठर (भारा) धड़ाम से नीचे रखा। जोर से आवाज होने पर वृक्ष पर बैठे क्रौंच पक्षी ने बीट कर दी। बीट में से जौ के दाने चमकने लगे। यह देखकर सोनी की आँखे फटी की फटी रह गई। उसे अपनी गलती का एहसास होते देर नहीं लगी। किन्तु तब तक मुनिराज के प्राणपखेरु उड़ चुके थे। धन्य हैं वे मुनिराज , जिन्होंने द्वेष में आकर नहीं, अपितु स्व-पर कल्याणार्थ मौन धारण किया था।184 मौन की जितनी सराहना की जाए उतनी कम है। मौन मन को शान्त करने का सार्वकालिक 42 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 346 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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