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________________ (घ) प्रज्ञापनासूत्र में वर्णित सत्यासत्य अथवा मिश्र भाषा के दस प्रकार131 1) उत्पन्नमिश्रिता - जन्म लेने वालों की संख्या को अल्प या अधिक करके कहने वाली भाषा, जैसे – 'आज नगर में सैकड़ों शिशुओं का जन्म हुआ, जबकि उस संख्या से कम या ज्यादा शिशुओं का जन्म हुआ है'। 2) विगतमिश्रिता - विगत अर्थात् मृतकों की संख्या को कम या ज्यादा करके कहने वाली भाषा, जैसे - किसी स्थान पर आए भूकम्प में 900 लोगों की मृत्यु हुई, जबकि कोई किसी को चौंकाने के लिए कहता है – ‘पता है, भूकम्प में हजारों लोगों की जान चली गई। 3) उत्पन्नविगतमिश्रिता – जन्में और मरे हुओं की संख्या नियत होने पर भी उसे कम-ज्यादा करके कहने वाली भाषा। 4) जीवमिश्रिता – जीवों और अजीवों की मिश्रित राशि को देखकर भी उसे सम्पूर्णतया जीवराशि कहने वाली भाषा। 5) अजीवमिश्रिता - जीवों और अजीवों की मिश्रित राशि को देखकर भी उसे सम्पूर्णतया अजीवराशि कहने वाली भाषा। 6) जीवाजीवमिश्रिता – जीवों एवं अजीवों की संख्या में विसंवाद (अल्पाधिकता) होने पर भी उन्हें नियत रूप से कहने वाली भाषा, जैसे – 'इसमें आधे जीवित और आधे मृत हैं। 7) अनन्तमिश्रिता – अनन्तकायिक और प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवों को मिला हुआ देखकर भी यह कहने वाली भाषा कि 'ये सब अनन्तकायिक हैं'। 8) प्रत्येकमिश्रिता – अनन्तकायिक और प्रत्येकवनस्पतिकायिक जीवों के समूह को देखकर भी यह कहने वाली भाषा कि 'ये सब प्रत्येकवनस्पतिकायिक हैं'। 9) अद्धामिश्रिता - दिन में रात्रि अथवा रात्रि में दिन का आरोपण करने वाली भाषा, जैसे – अभी दिन विद्यमान होते हुए भी यह कहना कि 'जल्दी भोजन कर, देख! रात हो गई है' अथवा अभी रात्रि का कुछ भाग शेष है, लेकिन यह कहना कि 'उठ दिन निकल आया है। 10) अद्धाद्धामिश्रिता - दिन या रात्रि के कालांशों का मिश्रण करने वाली भाषा, जैसे - अभी पहला प्रहर प्रवर्त्तमान है, फिर भी किसी को यह कहना कि 'जल्दी चल, मध्याह्न हो गया है'। इस प्रकार, जैनाचार्यों ने वाणी के असम्यक् प्रयोगों की विस्तार से प्ररूपणा की है। भले ही उपर्युक्त वाणी-प्रयोग, जैसे – क्रोधनिःसृता, माननिःसृता आदि हमें शास्त्रीय उपदेशों के समान सामान्य लगते हों, लेकिन जीवन का यथार्थ अवलोकन करने पर यह अवश्य महसूस होगा कि ये हमारे दैनन्दिन जीवन के ही भाषायी प्रयोग हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार तो सत्यभाषी इस विश्व में सबसे अल्प हैं, इनसे असंख्यातगुणा अधिक सत्यासत्यभाषी हैं, इनसे असंख्यातगुणा अधिक असत्यभाषी हैं और इनसे भी असंख्यातगुणा अधिक असत्यासत्यभाषी हैं।192 उपर्युक्त आँकड़ों से यह सिद्ध है कि इस विश्व में भाषिक क्षमता प्राप्त करने से भी अधिक दुर्लभ एवं चुनौतीपूर्ण कार्य भाषिक क्षमता का सदुपयोग करना है। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 32 336 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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