SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिए मेरी पूर्ण सहमति है' इत्यादि। 8) अनभिगृहीता - किसी नियत अर्थ को प्रकट न कर पाने वाली भाषा, जैसे – 'इस समय मैं कौन-सा कार्य करूँ?' ऐसा पूछने पर उत्तरदाता का कहना हो - 'जैसा उचित समझो, वैसा करो'। 9) अभिगृहीता - किसी नियत अर्थ का निश्चय कराने वाली भाषा, जैसे – 'इस समय तुम्हें अध्ययन ही करना चाहिए, मनोरंजन नहीं'। 10) संशयकरणी – अनेक अर्थों को प्रकट करने वाली भाषा, जैसे – किसी ने किसी को कहा - ‘सैन्धव ले आओ'। सैन्धव शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मँगाता है या घोड़ा, वस्त्र अथवा पुरूष, क्योंकि ये चारों ही सैन्धव शब्द के अर्थ हैं। 11) व्याकृता – अर्थ को स्पष्ट करने वाली भाषा, जैसे – त्रिभुज तीन भुजाओं से युक्त होता है। 12) अव्याकृता – किसी की अनिर्वचनीयता या अव्यक्तता का कथन करना। यह बारह प्रकार की व्यवहार भाषा है, जो सामान्य परिस्थिति में सज्जनों के लिए बोलने योग्य मानी गई है। (ग) प्रज्ञापनासूत्र में वर्णित असत्यभाषा के दस प्रकार130 1) क्रोधनिःसृता - क्रोधवश निकलने वाली भाषा। 2) माननिःसृता – मानवश स्व-प्रशंसा और पर-निन्दा करने वाली भाषा। 3) मायानिःसृता - छल-कपट, ठगी आदि के अभिप्राय से निकलने वाली भाषा। 4) लोभनिःसृता - लोभवश निकलने वाली भाषा, जैसे – गलत नाप-तौल करके भी पूछने पर प्रमाणोपेत कहना। 5) रागनिःसृता – रागवश निकलने वाली भाषा, जैसे – 'मैं तो आपका दास हूँ'। 6) द्वेषनिःसृता - द्वेषवश गुणीजनों की भी निन्दा आदि करने वाली भाषा। 7) हास्यनिःसृता - हँसी-मजाक में झूठ बोलने वाली भाषा। 8) भयनिःसृता – भयवश निकलने वाली भाषा।। 9) आख्यायिकानिःसृता – किसी कथा-कहानी के वर्णन में असम्भव वस्तु को सम्भव जताने वाली भाषा, जैसे – 'उसके स्वर्गवासी पिता उसे रोज बहुत-सी सामग्री भेजते थे'। 10) उपघातनिःसृता – दूसरे के हृदय को आघात पहुँचाने की दृष्टि से निकलने वाली भाषा, जैसे – 'किसी को अन्धा या काणा कहना' अथवा 'तू चोर है', ऐसा कहना इत्यादि । सामान्य रूप से जैनाचार्यों ने इन असत्य भाषाओं का सर्वथा निषेध किया है, अतः सज्जनों को इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। 335 अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy