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________________ ग्रन्थियों से अवांछित रसायनों का उत्सर्जन (Unwanted Chemical Secretion from various glands) होता है और रक्त-कणिकाओं (Blood cells) पर कुप्रभाव भी पड़ता है। (5) भावात्मक कमजोरियों की अभिवृद्धि अतिवाचालता से व्यक्ति की चिन्ताएँ अनावश्यक रूप से बढ़ जाती हैं, साथ ही इससे उसकी अनेकानेक भीतरी शक्तियाँ निष्क्रिय होने लगती हैं। व्यक्ति की एकाग्रता (Concentration). विचार एवं चिन्तन-मनन की क्षमता (Indepth Contemplation), निर्णय क्षमता (Decisiveness), स्मरण-शक्ति (Memory), आत्मविश्वास (Self confidence), निर्भीकता (Fearlessness) इत्यादि शक्तियों का कमजोर होना वाचिक क्षमता के अनावश्यक प्रयोग का ही दुष्परिणाम है। (6) पारस्परिक सम्बन्धों को आघात जहाँ एक ओर वाणी का सम्यक् प्रयोग व्यक्ति को सबका प्रीतिपात्र बना सकता है एवं निराश मन को उमंग और उल्लास से भर सकता है, वहीं दूसरी ओर वाणी का मिथ्या प्रयोग पारस्परिक सम्बन्धों को आघात भी पहुँचा सकता है। वाणी के दुष्प्रयोग से ही सामाजिक विघटन बढ़ता है। पारिवारिक कलह की मूल जड़ भी यही है। पति-पत्नी, भाई-बहन, पिता-पुत्र , भाई-भाई, माँ-बेटी, सास-बहू आदि कोई भी रिश्ते-नाते क्यों न हो, वाणी-व्यवहार के गिरते स्तर से इन घनिष्ठ और पवित्र सम्बन्धों में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। बरसों से स्थापित सम्बन्धों की इमारतें कुछ क्षणों के वाचिक आदान-प्रदान से ही ढह जाती हैं। कभी-कभी सुनने वाले को कुछ शब्द इतने तीक्ष्ण महसूस होते हैं कि वह सभी आत्मीय सम्बन्धों को भूल कर परस्पर विद्वेष के नवीन सम्बन्धों का निर्माण कर लेता है। यह विद्वेष की गाँठ जीवनपर्यन्त मन में बनी रहती है। इस प्रकार, बुजुर्ग, युवा और बालकों के बीच मधुर-संवाद का अभाव हो जाता है, परस्पर असंवाद (Communication gap) की खाई गहराती जाती है और इससे परिवार में असमन्वय की स्थिति उभरती है। कुल मिलाकर, कहा जा सकता है कि सामाजिक-विघटन, संयुक्त परिवारों का बिखराव एवं एकाकी परिवारों में द्वन्द्व का मूल कारण सम्यक् संप्रेषण का अभाव ही है। (7) धार्मिक एवं नैतिक संस्कारों के स्तर में गिरावट वाणी व्यक्ति के व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ तत्त्व है। प्रायः जैसा वह सोचता है, वैसा बोलता है और जैसा बारम्बार बोलता है, वैसी ही उसकी सोच बन जाती है। यदि उसकी वाणी में अशिष्ट और असभ्य शब्दों का प्रयोग अधिक होता है, तो इसका प्रभाव कहीं न कहीं उसके संस्कारों के पतन का कारण बनता है। धीरे-धीरे उसका मेल-जोल, उठना-बैठना, खाना-पीना आदि भी अपने समान स्तर वाले लोगों के साथ बढ़ता जाता है। वह अच्छे विचारकों, बुद्धिजीवियों व सत्पुरूषों की संगति से दूर हो जाता है। यहाँ तक कि सज्जन भी ऐसे व्यक्ति से दूरी बनाए रखने में अपनी भलाई समझते हैं। 14 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 318 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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