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5.6 निष्कर्ष
जैनदर्शन अनेकान्तमूलक है। इसमें शरीर के सम्यक् प्रबन्धन के लिए अनेकानेक निर्देश दिए गए हैं, जिनमें से शरीर सम्बन्धी दस कारकों की यहाँ चर्चा की गई है। यदि व्यक्ति इन कारकों के आधार पर अपनी जीवनशैली को अनियमितताओं से मुक्त कर सुप्रबन्धित कर ले, तो यह शरीर रूपी यंत्र अधिक कार्यकुशलता के साथ (स्वस्थ रहते हुए) अपना कार्य सम्पादित कर सकता है।
जैनाचार्यों का लक्ष्य केवल शरीर को स्वस्थ रखना ही नहीं है, अपितु शरीर रूपी नौका के द्वारा मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास करते हुए मोक्ष रूपी तट तक पहुँचना भी है। आशय यह है कि शरीर-प्रबन्धन की सार्थकता तभी है, जब शरीर की स्वस्थता रहे और शरीर का उचित प्रयोग जीवन में हो सके।
___ इस हेतु जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे शरीर असन्तुलित होकर अस्वस्थ बने, फिर भी शरीर यदि असन्तुलित या रुग्ण हो जाए, तो उसे कर्मादि अदृश्य शक्तियों का परिणाम मानकर समता भाव से जीने का अभ्यास करे। साथ ही जब तक शरीर कार्यशील रहे, तब तक परमकल्याण के पथ पर अग्रसर होता रहे। यह नीति ही सम्यक् जीवन-प्रबन्धन की सम्यक् दिशा है।
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अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन
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