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2) आयुर्वेद का अभिमत
जैन-परम्परा में निर्दिष्ट आहार-व्यवस्था स्वास्थ्य की दृष्टि से कितनी उचित है, यह तथ्य आयुर्वेदिक अभिमत से भी सिद्ध हो जाता है। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि मध्याह्न काल (लगभग 12 से 2 बजे तक) पित्तवृद्धि का समय है और यदि इसमें भोजन किया जाए, तो भोजन शीघ्र व अधिक अंश में पचता है, परिणामतः शरीर अधिक पुष्ट होता है।183 3) आपवादिक परिस्थितियाँ
श्रावक को सदैव एकासणा करना योग्य है, परन्तु यदि प्रतिदिन एकासणा न हो सके, तो भी कम से कम निम्नलिखित बिन्दुओं का पालन करना ही चाहिए -
★ सूर्योदय के दो घड़ी (48 मिनिट) के बाद ही आहार का ग्रहण। ★ सूर्यास्त में दो घड़ी (48 मिनिट) शेष रहते आहार का त्याग।
★ रात्रि में असह्य होने पर भी कम से कम दुविहार/तिविहार का प्रत्याख्यान । 4) रात्रिभोजन-निषेध
जैनआचारमीमांसा में रात्रिभोजन के निषेध को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। रात्रिभोजन न केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से, अपितु विज्ञान एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी त्याज्य है। ★ धार्मिक दृष्टि से - • दशवैकालिकसूत्रानुसार 164 -- ‘रात्रिभोजन मुनि के लिए तिरपन अनाचीर्णों में से एक है
अर्थात् यह अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार ही नहीं, किन्तु अनाचार है।' • विशेषावश्यकभाष्यानुसार 165 – 'रात्रिभोजन का त्याग करने से अहिंसा महाव्रत का
संरक्षण होता है।' • दशवैकालिकसूत्रानुसार166 – 'अहिंसादि पाँच महाव्रतों के साथ ही रात्रिभोजन का त्याग
करना चाहिए और इस व्रत को महाव्रतों की तरह ही दृढ़ता से पालना चाहिए।' • योगशास्त्रानुसार 167 – 'जो लोग दिन के बदले रात को ही खाते हैं, वे मूर्ख मनुष्य
सचमुच हीरे को छोड़कर काँच को ग्रहण करते हैं।' • महाभारतग्रन्थानुसार – ‘जो लोग मद्यपान, मांसाहार, रात्रिभोजन एवं जमीकन्द का भक्षण
करते हैं, उनकी तीर्थयात्रा, जप-तप आदि अनुष्ठान निष्फल हो जाते हैं।' • यजुर्वेदानुसार168 - ‘देव हमेशा दिन के प्रथम प्रहर में, ऋषि-मुनि दिन के दूसरे प्रहर में, पितृजन दिन के तीसरे प्रहर में तथा दैत्य, दानव, यक्ष एवं राक्षस सन्ध्या के समय भोजन करते हैं।'
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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