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5.3.10 अन्यकारक सम्बन्धी विसंगतियाँ
उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त भी जीवन में अनेक कारक होते हैं, जो शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। ये भी शरीर–प्रबन्धन के लिए बाधक हैं - वाणी की वाचालता जोर-जोर से बोलना, उग्रता से बोलना, लगातार बोलना आदि। अर्थ की अत्यधिक तन से अधिक धन को महत्त्व देना, अधिक देर तक बैठकर कार्य करना (Sedentary), भोजन लोलुपता
करते हुए आर्थिक चिन्ताओं से ग्रस्त रहना आदि। अतिसामाजिकता मित्र, परिजन, पड़ोसी आदि के साथ ज्यादा समय व्यतीत करना, बार-बार शादी-ब्याह,
जन्म-मरण के कार्यक्रमों में जाना, खाना, पीना आदि। इन्द्रिय-विषयों का मनोरंजन के साधनों, जैसे - टी.वी. आदि को अत्यधिक देखना, ध्वनि विस्तारक यंत्रों का अतिभोग
अत्यधिक प्रयोग करना, मोबाईल पर घण्टों बातें करना, सुविधा एवं विलासिता के साधनों का
अतिप्रयोग करना आदि। पर्यावरण का प्राकृतिक वातावरण को बिगाड़ना, धूल-धुसरित स्थानों पर रहना, धुआँ देने वाले संसाधनों, अतिशोषण जैसे - भट्टी, जनरेटर, वाहन आदि का अतिप्रयोग करना आदि। अज्ञानपूर्वक साधना शरीर कृश करने को ही साधना मानना, शक्ति न होने पर भी अज्ञानपूर्ण तप-त्याग करना
आदि। अध्ययन में अतिश्रम सामर्थ्य न होने पर भी पढ़ने, लिखने, याद करने आदि में अत्यधिक श्रम करना इत्यादि। अतिसमयप्रबद्धता प्रत्येक कार्य में जल्दबाजी करना, सदैव अधीर रहना इत्यादि।
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इस प्रकार, अप्रबन्धित या असंयमित जीवनशैली को उपर्युक्त कारकों से समझा जा सकता है तथा इनसे होने वाले शारीरिक रोगों को भी पहचाना जा सकता है। वस्तुतः, ये सभी कारक शारीरिक रोगों की उत्पत्ति तो करते ही हैं, साथ ही परोक्ष रूप से अनेक समस्याओं को भी बढ़ाते हैं। जब व्यक्ति रोगी होता है, तो सामान्यतया उसके मानसिक एवं वाचिक व्यवहार में भी गिरावट आ जाती है, जिससे उसकी पारिवारिक , आर्थिक एवं सामाजिक जीवनचर्या भी बिगड़ जाती है।
__ अतः जीवन-प्रबन्धन के लिए शरीर का सम्यक् प्रबन्धन करना अत्यावश्यक है, जिससे जीवनशैली में समुचित सुधार करके स्वास्थ्य का उचित संरक्षण किया जा सके।
देखने को छोटा-सा देह, भरी है पर इसमें शक्ति अपार । सूर्य से बढ़कर इसमें तेज, धरा से बढ़कर इसमें सार।। अगर यह दक्षिण को मुड़ जाय, सजा दे यही स्वर्ण का साज। पकड़ ले कहीं वामपन्थ किन्तु, विश्व का कर दे उपसंहार।।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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