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________________ कोई ईलाज नहीं है। निशीथभाष्य में ऐसे शक्तिहीन व्यक्तियों के बारे में कहा गया है कि वे ज्ञानादि की सम्यक् साधना भी नहीं कर पाते।" शरीर-प्रबन्धन के लिए जीवन की पवित्रता, सात्विकता एवं ब्रह्मचारिता अतीव आवश्यक है और यह यौन सम्बन्धों के सम्यक् प्रबन्धन के द्वारा ही सम्भव है। इस पद्धति से किया गया शरीर-प्रबन्धन ही आत्मिक उन्नति का माध्यम भी है। यौन सम्बन्धों का सम्यक् प्रबन्धन कैसे हो, इसकी चर्चा आगे की जाएगी। 5.3.9 मनोदैहिक विसंगतियाँ मानव का मन एक दुष्ट अश्व के समान अनियंत्रित है, इससे मानव सदैव चिन्तित रहता है।92 मन में निरन्तर कुछ न कुछ विचार एवं वासनाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, काम, क्रोध, मोह, लोभ, अभिमान आदि इनके विषय होते हैं। विडम्बना यह है कि न तो कभी इनकी पूर्ति होती है और न ही कभी इनसे तृप्ति मिलती है। विश्राम की आशा दुराशा मात्र होती है। एक वासना से छुटकारा मिलता नहीं कि मन दूसरी वासना का शिकार हो जाता है, फिर तीसरी का , यही क्रम मनुष्य के मरते दम तक चलता रहता है। कहा भी गया है – “जैसे बन्दर क्षणमात्र के लिए भी शान्त नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन क्षणमात्र के लिए भी संकल्प-विकल्प से मुक्त नहीं होता।" 94 आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं कि औसतन पैंसठ हजार विचार एवं भाव स्थूल रूप से प्रतिदिन मन में आते हैं। विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा गया है कि असंख्य विचार या भाव (अध्यवसाय) मन में प्रतिदिन आते रहते हैं, जो इतने सूक्ष्म होते हैं कि इनमें से अधिकांश विचारों को जाग्रत अवस्था में भी पहचाना नहीं जा सकता।95 मन के इस असंयमित व्यवहार से व्यक्ति का शरीर भी प्रभावित होता है, क्योंकि मन और तन दोनों अन्योन्याश्रित हैं। अनेक प्रकार के मानसिक रोग, जैसे – तनाव, अवसाद, स्मृतिभ्रंश, दुर्भीति (Phobia), O.C.D. (मनोग्रस्तता बाध्यता विकृति/Obsessive Compulsive Disorder) आदि होते हैं, तो साथ ही शारीरिक रोग, जैसे – हृदयरोग, आमाशयरोग, दमा, खुजलाहट, गर्भपात, पीठ के दर्द आदि भी होते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें मनोदैहिक रोग (Psychosomatic Diseases) कहा जाता है। इस प्रकार, मन का कुप्रबन्धन व्यक्ति की मानसिक निराशा एवं शारीरिक अस्वस्थता का कारण सिद्ध होता है, परन्तु यदि मन का सम्यक् प्रबन्धन किया जाए, तो न केवल मन, अपितु तन भी निरोगी रह सकता है। व्यवहारभाष्य में कहा गया है कि इन्द्रिय-विषयों की समान प्राप्ति होने पर भी एक व्यक्ति उनमें आसक्त हो सकता है, तो दूसरा विरक्त भी।" अतः इन्द्रियों के विषय प्रधान नहीं हैं, प्रधान है – अध्यात्म। इस जैनदृष्टि को अपनाकर यदि व्यक्ति आध्यात्मिक व्यक्तित्व का सृजन करे, तो शरीर–प्रबन्धन के साथ-साथ जीवन–प्रबन्धन भी सहजता से हो सकता है। 257 अध्याय 5: शरीर-प्रबन्धन 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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