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________________ मनुष्य शरीर ही है, जिसमें तप होता है, महाव्रतों का पालन होता है, आत्म-ध्यान होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैनाचार्यों की यह दृष्टि जीवन-प्रबन्धक के लिए उपयोगी है, क्योंकि इससे ही शरीर के सम्यक् उपयोग का बोध प्राप्त होता है। उसे चाहिए कि वह अर्थ एवं काम-भोग में ही शरीर को नष्ट करने के बजाय नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए भी शरीर का सहयोग ले। वह जैनाचार्यों के इस कथन को जीवनमंत्र बनाए – 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं' अर्थात् शरीर निश्चय ही धर्म-साधना का प्राथमिक साधन है। आयुर्वेद में इसीलिए कहा गया है कि धर्मादि चारों पुरूषार्थों का प्रधान कारण आरोग्य है, अतः मनुष्य को रोगों से शरीर की रक्षा करनी चाहिए।यहाँ तक कि सभी कार्य छोड़कर भी सर्वप्रथम शरीर की रक्षा करने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि यदि शरीर ही सुरक्षित नहीं रहेगा, तो कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा। जिस प्रकार सारथी अपने रथ की रक्षा करने में सावधान रहता है, उसी प्रकार प्राणी को अपने शरीर की रक्षा करने में सतर्क रहना चाहिए। स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है - 'पहला सुख निरोगी काया' ।59 देह रक्षा योग्य है, निज इष्ट साधन के लिए। है असम्भव कार्य सब, तन की बिना रक्षा किए।। इस प्रकार, जैनाचार्यों ने शरीर के साथ शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण न अपनाते हुए मित्रतापूर्ण दृष्टिकोण रखने का उपदेश दिया है, क्योंकि यह जीवन-अस्तित्व एवं जीवन-विकास का अमूल्य साधन है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि धर्म के साधनभूत इस शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। शयन-जागरण, भोजन-पान आदि के द्वारा इसे स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस देह का प्रयोग विदेही बनने में करना ही जीवन-प्रबन्धन का सर्वोच्च लक्ष्य है। शरीर से पुण्य परोपकार, शरीर ही है गुण आगार। शरीर ही है सुरलोक-द्वार, शरीर ही से सुविचार सार ।। शरीर ही से पुरूषार्थ चार, शरीर की है महिमा अपार । शरीर रक्षा पर ध्यान दीजे, शरीर सेवा सब छोड़ कीजे।। =====4.>===== 245 अध्याय 5: शरीर-प्रबन्धन 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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