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________________ (च) नियत वस्तु के लिए नियत स्थान - जो वस्तु जहाँ रखने की है, उसे वहीं पर रखने से वस्तु को ढूँढना नहीं पड़ता एवं कार्य के क्रियान्वयन में सफलता मिलती है। जैनदर्शन में इस हेतु उत्थापन–प्रतिस्थापन (आदान-निक्षेपण) नामक ‘समिति' का उल्लेख है, जिसका तात्पर्य है – वस्तु को उसके सम्यक् स्थान पर ही प्रतिस्थापित करना। अतः समय-प्रबन्धक को वस्तुओं को उठाने और रखने में सावधानी भी रखनी चाहिए। (छ) अल्प आवश्यकताओं में जीना - जिसके पास जितनी अधिक सामग्रियाँ होगी, उसका उतना अधिक समय उनके रख-रखाव में बीतेगा, इसीलिए जैनदर्शन में 'परिग्रह' पर अंकुश लगाने के लिए जोर दिया गया है।105 परिग्रह दो प्रकार का होता है - अंतरंग एवं बहिरंग। ये दोनों ही परिग्रह कार्य के सामयिक क्रियान्वयन में बाधक हैं, अतः इनकी उचित सीमा होना नितान्त आवश्यक है। जैनदर्शन का कहना है - इच्छाएँ असीम हैं, उन सभी की पूर्ति सम्भव नहीं है, अतः अपनी इच्छाओं को सीमित करें।106 (विशेष : देखें अध्याय 10 एवं 11) (ज) मनुष्य-जीवन की दुर्लभता का चिन्तन - मनुष्य-जीवन की दुर्लभता को समझकर आत्महित के लिए इसे एक अपूर्व अवसर के रूप में स्वीकारना चाहिए। सूत्रकृतांगसूत्र में भगवान् महावीर कहते हैं – 'जीवन की दुर्लभता को, क्यों नहीं समझ रहे हो? मरने के बाद परलोक में सम्बोधि का मिलना कठिन है। जैसे बीती हुई रातें फिर लौटकर नहीं आती, उसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता। 107 इस प्रकार का चिन्तन करने से समय का सर्वोत्तम सदुपयोग करने की अभिप्रेरणा अन्तस् में जाग्रत होती है, जो कार्य के कुशल क्रियान्वयन में सहयोगी बनती है। (झ) धैर्य – कार्य के सम्यक् क्रियान्वयन के लिए जागरुकता, एकाग्रता, दृढ़ता एवं स्फूर्ति होनी चाहिए, लेकिन उसमें जल्दबाजी बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा है - दवदवस्स न गच्छेज्जा अर्थात् मार्ग में जल्दी-जल्दी, ताबड़-तोड़ नहीं चलना चाहिए। 108 जल्दबाजी करने से कई बार एकाग्रता भंग हो जाती है, सन्तुलन बिगड़ जाता है और काम में गड़बड़ी का अन्देशा रहता है। साथ ही आत्म-जागृति खो जाती है एवं हिंसा, झूठ, कपट, लालच आदि असात्विक वृत्तियाँ बहुत शीघ्रता से बढ़ती हैं। इन सब कारणों से अधिकांशतः समय का अपव्यय अधिक होता है, इसीलिए John Heywood (1497-1580) ने कार्य के सफल सामयिक क्रियान्वयन के लिए सावधान करते हुए कहा है - 'Haste maketh waste' अर्थात् जल्दबाजी से बर्बादी होती है।109 28 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 210 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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