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________________ चिन्तन-मनन के माध्यम से कई बार ऊँचे, अच्छे और उपयोगी विचार करते हैं और भविष्य की योजना भी बना लेते हैं। विडम्बना यह है कि प्रतिसमय उत्पन्न हो रहे नूतन विचारों के प्रवाह में कई बार उचित विचार और योजनाएँ बिना क्रियान्वयन किए ही विस्मृत हो जाती हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि नकारात्मक विचार तो लम्बे समय तक स्मृति में रहते हैं, जबकि सकारात्मक विचार बहुत जल्दी विस्मृत हो जाते हैं, अतः हमें चाहिए कि चिन्तित और निर्णीत सद्विचारों एवं सद्योजनाओं को सूचीबद्ध करें, जिससे उचित समय पर उचित कार्य (काले कालं समायरे ) किया जा सके । भगवान् महावीर कहते हैं “एक जाग्रत साधक प्रतिदिन सुबह एवं शाम सम्यक् प्रकार से आत्म-निरीक्षण करे कि मैंने क्या किया है और क्या नहीं किया है तथा कौन-सा कार्य करना शेष है, जिसे मैं समर्थ होने पर भी नहीं कर पा रहा हूँ। जैनशास्त्रों में उपदिष्ट समयावधियों के आधार पर कार्य - सूची के कई प्रकार सम्भव हैं. क्र. कार्य-सूची का प्रकार समयावधि क्र. कार्य-सूची का प्रकार समयावधि 1) रात्रिक एक रात्रि 4) चातुर्मासिक चार माह 2) दैवसि 5) वार्षिक एक वर्ष 3) पाक्षिक पंद्रह दिन 6 ) अन्य कोई नियत अवधि कार्य-सूची को किस तरह बनाया जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है। जैनाचार में इसके लिए करणीय और अकरणीय कार्यों में भेद करने पर बल दिया गया है। मुनि और गृहस्थ को अपनी-अपनी भूमिकानुसार निर्णय करना चाहिए कि वह क्या करे और क्या न करे। करने योग्य कार्यों में भी वह अनेकान्त–दृष्टि द्वारा देश, काल, स्व-शक्ति और परिस्थिति के आधार पर अपनी प्राथमिकताओं क निर्णय करे। कहा भी गया है। जाग्रत वही है, जो सत् और असत् में भली प्रकार से भेद कर सकता है। 7 जो कार्य अधिक प्रभावी और कल्याणकारी (Highly effective and beneficial) हैं, उन्हें प्राथमिकता देनी चाहिए। इस प्रकार कार्यों को उनकी प्राथमिकता के आधार पर अनुक्रम से सूचीबद्ध करना चाहिए। इसे ही आधुनिक प्रबन्धन में 'प्राथमिक कार्य पहले' (First Thing First) का सिद्धान्त कहते हैं। - जैनकथासाहित्य में भी अत्यावश्यक, आवश्यक और अनावश्यक कार्यों में चयन की सम्यक् पद्धति के कई प्रसंग मिलते हैं, जैसे भरत महाराजा को जब प्रभु के केवलज्ञान और चक्ररत्न की बधाई एक ही साथ प्राप्त हुई, तब उन्होंने दोनों बधाई - दाताओं को पुरस्कृत किया और विचार किया कि पहले किसका महोत्सव करना चाहिए? शीघ्र ही इस विचार पर पहुँचे कि 'धर्मार्थे सकलं त्यजेत् ' अर्थात् धर्म के लिए सब छोड़ देना चाहिए और इस न्याय के आधार पर पहले ज्ञान का महोत्सव किया, तत्पश्चात् चक्ररत्न की पूजा की। 199 Jain Education International 1 अध्याय 4: समय-प्रबन्धन For Personal & Private Use Only 17 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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