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________________ मदमस्त हाथी के समान एक ही गति से आगे बढ़ता जाता है, न कभी तेज और न कभी धीरे। 20 अंग्रेजी में कहावत है - — Time & tide wait for none. भगवान् महावीर समय के महत्त्व को समझाते हुए कहते हैं कि जैसे बीती रातें लौटकर नहीं आती, वैसे ही मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता । 21 आज तक कोई भी समय को वशीभूत नहीं कर सका, क्योंकि समय किसी का दास नहीं है, फिर भी इतना सुनिश्चित है कि व्यक्ति अपने सम्यक् पुरूषार्थ से समय को अपने अनुकूल बना सकता है अर्थात् समय के सम्यक् उपयोग के परिणामस्वरूप समय स्वयमेव हमारे अनुकूल बन जाता है।22 आचारांगसूत्र के अनुसार, जिस तरह अग्नि पुराने सूखे काष्ठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी तरह आत्म-समाहित निःस्पृह साधक कर्मों को कुछ ही क्षणों में क्षय कर देता है । वास्तव में ऐसा साधक कर्मों की प्रतिकूल परिस्थिति में भी स्वयं की समता को बढ़ाकर शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है और इस प्रकार समय उसके अनुकूल बन जाता है, जैसे गजसुकुमाल मुनि। 23 ★ जैनदर्शन के अनुसार, आत्मा और समय का अविनाभावी ( परस्पर साथ-साथ रहने वाला ) सम्बन्ध है, जो जन्म के पूर्व भी था और मृत्यु पश्चात् भी रहेगा। इस आधार पर समय के तीन भेद हैं 1) अतीत काल 2 ) वर्त्तमान काल 3 ) भविष्य काल । इसमें से वर्त्तमान काल एक समयमात्र है, अतीत का अनन्तकाल बीत चुका है और भविष्य का अनन्तकाल अभी अनागत है । भूत और भविष्य हमारे हाथ में नहीं हैं, फिर भी वर्त्तमान में जीकर हम अपने 'भूत' और 'भविष्य' के निर्माता होते हैं । व्यक्ति के हाथ में क्षणजीवी ‘वर्त्तमान’ ही होता हैं, किन्तु उसी के आधार पर कभी उसका 'भूत' बना था और कभी 'भविष्य' बनेगा, अतः भारतीय चिन्तन और विशेषरूप से जैनदर्शन का मानना यही है कि जो वर्त्तमान क्षण (समय) हमारे हाथ में है, हम उसका सम्यक् प्रबन्धन करें । वर्त्तमान क्षण का सम्यक् उपयोग करना ही समय-प्रबन्धन है । ★ जीवन का प्रत्येक परिवर्तन समयं - सापेक्ष होता है । तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार, किसी भी अवस्था का उद्भव, परिवर्त्तन, नए-पुराने रूप व्यवहार ज्येष्ठ-कनिष्ठरूप व्यवहार आदि सभी समय के आधार पर ही होते हैं। 24 गर्भ, जन्म, बाल, युवा, प्रौढ़, अधेड़, वृद्ध, मृत्यु आदि सभी जीवन अवस्थाओं के केंद्र में समय ही मुख्य तत्त्व है । 187 इस प्रकार, जीवन और समय की अभिन्नता के आधार पर यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि समय ही जीवन है | 25. Jain Education International ===: अध्याय 4: समय-प्रबन्धन For Personal & Private Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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