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________________ 4 ★ रोकना पल्योपम सागरोपम अन्य सामग्रियाँ, जैसे- पैसा, परिवार, पद, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि आदि मिले और न भी मिले, लेकिन 'समय' सबको मिलता है। स्पेनिश दार्शनिक बाल्टेसर ग्रेशियन Baltasar Gracian (1601 - 1658) ने इसकी पुष्टि इस प्रकार की है - Nothing really belongs to us but time, which even he has, who has nothing else अर्थात् हमारा कुछ भी नहीं है, किन्तु समय है, जो उसके पास भी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। 14 भगवान् महावीर ने कर्म सिद्धान्त के माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व ही इस तथ्य को प्रतिपादित कर दिया था कि प्रत्येक प्राणी को पूर्व जीवन में बाँधे हुए (संचित) आयु- कर्म के अनुसार नियत समयावधि के लिए जीवन मिलता है। चाहे प्राणी को अन्य कर्मों के आधार पर जीवन में बाह्य सामग्रियाँ न मिलें अथवा प्रतिकूल मिलें, परन्तु आयु कर्म के निमित्त से 'समय' तो मिलता ही है। ★ समय किसी का पक्षपाती नहीं है, क्योंकि वह न दयालु है और न निर्दयी । ” जब हमारे साथ कोई अनचाही घटना होती है, तब हम दोषारोपण समय पर करते हैं, लेकिन भगवान् महावीर के अनुसार, वास्तव में इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं । अतीत में हमारे द्वारा जैसा कर्म किया जाता है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। " शुभ कर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ मिलता है, अतः हमें मानना चाहिए कि समय प्रतिकूल नहीं होता, बल्कि हम ही कहीं न कहीं समय के प्रतिकूल हो जाते हैं । ★ समय नदी के समान अविरल गति से बहता रहता है, 17 जिसे कोई इन्द्र, नरेन्द्र या जिनेन्द्र भी रोक नहीं सकते। आचारांग में कहा भी गया है कि आयु व यौवन प्रतिक्षण बीता जा रहा है। 18 ★ भले ही हवा को सिलेण्डर में, ऊर्जा को बैटरी में और पानी को जलाशयों में संग्रह करके रखा जा सकता है, लेकिन समय के साथ ऐसा व्यवहार तनिक भी सम्भव नहीं है। समय के अविच्छिन्न प्रवाह को न तो कोई रोक सकता है और न संचित कर सकता है। किसी हिन्दी कवि का कहना है 19 Jain Education International असंख्यात काल 10 कोटाकोटी पल्योपम 20 कोटाकोटी सागरोपम कालचक्र पुद्गल परावर्तन अनन्तकाल - " है समय नदी की धार जिसमें, सब बह जाया करते हैं, है समय प्रबल पर्वत जिसके आगे सब झुक जाया करते हैं। अक्सर लोग समय के चक्कर में चक्कर खाया करते हैं, लेकिन कुछ ही ऐसे होते हैं, जो इतिहास बनाया करते हैं ।। दूर, समय की गति को लेशमात्र भी कम-ज्यादा नहीं किया जा सकता है। यह तो जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 186 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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