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________________ करे और अपनी पात्रता विकसित करे। इस प्रकार, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग एवं ध्यान के समन्वय से कषायों का शमन करता हुआ वह अपनी मान्यता अर्थात् दृष्टिकोण को सम्यक् करे। इस हेतु वह संसार के वास्तविक स्वरूप का अनुभूतिपूर्वक सम्यक् निर्णय करे। यह जैनआचारमीमांसा में निर्दिष्ट दर्शनाचार सम्बन्धी प्रयत्न है और भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास का आधार है। सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दृष्टिकोण के आधार पर चारित्र-शुद्धि का विशेष प्रयत्न करे। इस प्रकार पूर्व में प्राप्त ग्रहणात्मक-शिक्षा को आधार बनाकर आसेवनात्मक-शिक्षा को मुख्यता दे। इसमें भी तप एवं वीर्य का विशेष प्रयोग करके सभी विकारों पर विजय प्राप्त करता जाए। यही चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार सम्बन्धी प्रयत्न है, जिनसे भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास सुदृढ़ होता चला जाता है। __ इस प्रकार, जैनआचारशास्त्र में क्षमा, मृदुता, सरलता, सन्तोष, सहिष्णुता, निर्भयता आदि गुणों की प्राप्ति के लिए उपर्युक्त शिक्षा-पद्धति निर्दिष्ट है। इस पर चलकर जीवन-प्रबन्धक बाह्य जीवन-व्यवहार को सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित करता हुआ आध्यात्मिक विकास की ऊँचाइयों पर पहुँच जाता है। मार्ग में आती हुई सभी बाधाओं को पार करता हुआ वह विकास के शिखर को छू लेता है। जैनाचार्यों ने शिक्षा का अन्तिम सार 'आचरण' बताया है। इस स्थिति तक पहुँचने के पूर्व जीवन-प्रबन्धक जितना-जितना मार्ग में आगे बढ़ता जाता है, उतनी-उतनी निषेधात्मक संवेगों की मन्दता होती चली जाती है और आनन्द तथा समरसता बढ़ती चली जाती है। संवेगों का पूर्ण अभाव होने पर पूर्णानन्द की प्राप्ति होती है। लौकिक शिक्षाएँ एवं लौकिक आवश्यकताएँ अब निष्प्रयोजन हो जाती है, यही शिक्षा का आदर्श है। ऋषिभाषित में दुःखों से पूर्ण मुक्ति एवं स्थायी सुख की प्राप्ति को शिक्षा का मूल प्रयोजन बताया गया है, वह अब जीवन-प्रबन्धक के जीवन में फलीभूत हो जाता है।127 आतमगुण निर्मल निपजतां, ध्यानसमाधि स्वभावे। पूर्णानंद सिद्धता साधी, देवचंद्र पद पावे रे।। 128 =====4.>===== 175 अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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