SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवेग अक्सर अतिगाढ़ होते हैं और प्रतिक्षण बढ़ते चले जाते हैं। यद्यपि ये अतिसूक्ष्म होते हैं, फिर भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। इनसे न केवल आध्यात्मिक उन्नति बाधित होती है, अपितु शारीरिक, वाचिक, बौद्धिक एवं मानसिक पक्षों की भी अवनति होती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, इनका दुष्प्रभाव शारीरिक स्नायुतन्त्र एवं मस्तिष्क पर भी पड़ता है। 121 अधिकांश शारीरिक व्याधियों (लगभग 75%) का मूलकारण भी ये संवेग ही होते हैं।122 अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह इस विकराल समस्या के सम्यक् समाधान के लिए जागरूक रहे। जैनाचार्यों के अनुसार, प्रत्येक मानव का एक सकारात्मक पक्ष है और वह है सुधार की योग्यता। यदि जीवन-प्रबन्धक का सम्यक् पुरूषार्थ जाग्रत हो जाए, तो वह अपने निषेधात्मक संवेगों को संक्षिप्त एवं समाप्त कर सकता है, वह सदा-सदा के लिए इनसे पूर्ण मुक्त भी हो सकता है। अतएव जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास की रुचि उत्पन्न कर इस दिशा में उचित पुरूषार्थ करे। श्रीमद्राजचंद्र ने भी इसीलिए कहा है123 - ___ काल दोष कलिथी थयो, नहीं मर्यादा धर्म । तोय नहीं व्याकुलता, जुओ प्रभु मुज कर्म ।। आगे बढ़ने के मार्ग में वह योग्य सद्गुरु की तलाश करे, जिनके लक्षणों के बारे में जैनाचार्यों ने अनेक निर्देश दिए हैं ,124 साथ ही वह उनकी देशना एवं आज्ञा का मन-वचन-काया से पालन करे,125 उनके उपदेशों का श्रवण करे तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट सत्शास्त्रों का अध्ययन करे। इस हेतु वह वाचनादि शिक्षा के पाँचों अंगों का उपयोग करे। साथ ही शब्दार्थादि पाँचों प्रकार से सद्गुरु के आशय को भलीभाँति समझे। इन सबके द्वारा वह राग-द्वेष, मोह एवं अज्ञान को जीतने वाले वीतरागी परमात्मा (सुदेव) को अपना परम आदर्श बनाए। इस प्रकार सुदेव, सुगुरु एवं सत्शास्त्र का आश्रय लेकर अपनी जीवन-दृष्टि को सुधारने के प्रयास में रत हो जाए। जैन शिक्षा-पद्धति में साहित्य के चार विभाग किए गए हैं 126 - 1) धर्मकथानुयोग 2) गणितानुयोग 3) द्रव्यानुयोग 4) चरणकरणानुयोग। जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह इन चारों अनुयोगों का अनुशीलन करे। वह क्रोधादि भावों की अधिकता होने पर धर्मकथानुयोग, मन के जड़ होने पर गणितानुयोग, जीवन-सिद्धान्तों के प्रति शंका होने पर द्रव्यानुयोग तथा प्रमादग्रस्त होने पर चरणकरणानुयोग का आश्रय लेता हुआ आगे बढ़ता जाए। पुनः-पुनः षड् द्रव्य, नवतत्त्व , प्रमाण, नय, निक्षेप आदि जैन साहित्यिक-विषयों का अनुचिन्तन करे। इस आधार पर स्व और पर का भेद करे, ध्यान की विविध प्रक्रियाओं का प्रयोग करे। इस प्रकार, वह ज्ञानाचार का विशेष यत्न करता हुआ सिद्धान्तों का सम्यक् निर्णय करे। अंतरंग में वैचारिक-शुद्धि के साथ-साथ बाह्य में आचरण-शुद्धि का प्रयत्न भी करता रहे एवं श्रावकाचार में वर्णित प्राथमिक आचारों (जैसे – सप्तव्यसन, बाईस अभक्ष्य आदि का त्याग) का पालन जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 60 174 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy