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________________ 3.6.4 सन्तुलित शिक्षा : एक आवश्यकता शिक्षा के विविध आयाम ही जीवन - विकास के आधार हैं। इनमें से किसी भी आयाम की, चाहे वह शारीरिक हो या सूचनात्मक, बौद्धिक हो या मानसिक तथा भावात्मक हो या आध्यात्मिक, उपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि किसी भी आयाम की उपेक्षा होती है, तो व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता । वर्त्तमान शिक्षाप्रणाली में यही कमी है कि इसमें व्यक्तित्व के सभी आयामों के सन्तुलित विकास पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एक ओर शारीरिक, संप्रेषणात्मक एवं बौद्धिक आयामों का महत्त्व बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर मानसिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक आयाम उपेक्षित हैं। इनमें भी शारीरिक विकास की प्रगति अपेक्षाकृत कम एवं बौद्धिक विकास की प्रगति अतितीव्र है। इसी प्रकार, मानसिक विकास की प्रगति बहुत कम तथा भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास तो नगण्य या विपरीत ही है । जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह इस असन्तुलन को दूर करे। वह इस प्रकार से शिक्षा प्राप्त करे कि शिक्षा के सभी आयामों का सम्यक् एवं सन्तुलित विकास हो सके। जैनकथानकों में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं, जिनमें शिक्षार्थी अनेक कष्टों को सहन करके भी शिक्षा प्राप्ति के लिए सुदूरवर्ती क्षेत्रों में गए। आर्य स्थूलिभद्रजी आगम-अध्ययन के लिए नेपाल गए, मुनिद्वय हंस एवं परमहंस बौद्धदर्शन के अध्ययन हेतु नालन्दा गए इत्यादि । इन प्रसंगों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सुविधाओं के अभाव में भी अथक परिश्रम बल पर दुर्लभ शिक्षा - साधनों को जुटाया जा सकता है। ये प्रसंग जीवन - प्रबन्धक के लिए भी प्रेरक हैं । भले ही आज के विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों की शिक्षाप्रणाली में अन्तिम तीन आयाम उपेक्षित हैं, फिर भी जीवनोपयोगी शिक्षा के लिए प्रयत्न करके जीवन के अन्य पहलुओं से सम्बन्धित शिक्षा-व्यवस्था प्राप्त की जा सकती है। वस्तुतः, जीवन - प्रबन्धन हेतु एक सन्तुलित नीति अपनानी होगी। शारीरिक, संप्रेषणात्मक एवं बौद्धिक विकास के लिए व्यक्ति को लौकिक शिक्षालयों का लाभ उठाना होगा तथा मानसिक, भावात्मक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए आध्यात्मिक एवं नैतिक संस्थानों का उपयोग करना होगा। फिर भी ऐसे संस्थानों की व्यवस्था मिलना आसान नहीं है, अतः उसे स्वयं ही जवाबदारी वहन करनी होगी। जैनशास्त्रों में दो प्रकार की शिक्षा-पद्धतियाँ वर्णित हैं. 1) निसर्गज एवं 2) अधिगमज । निसर्गज स्वाश्रित शिक्षा-पद्धति है, तो अधिगमज परोपदेशपूर्वक प्राप्त की जाने वाली पराश्रित शिक्षा-पद्धति है। अतः जीवन - प्रबन्धक को चाहिए कि जब गुरुगम (सुदेव-सुगुरू-सुधर्म) प्राप्त हो, तो उनसे ज्ञानार्जन अवश्य करे, जब गुरु का समागम न हो सके, तो अन्य सक्षम जीवन - प्रबन्धकों की संगति करे, वे भी न मिलें, तो सत्शास्त्रों को आधार बनाए, कदाचित् वे भी उपलब्ध न हों, तो पूर्व में प्राप्त शिक्षा के आधार पर चिन्तन-मनन करके अपने जीवन विकास के लक्ष्य की पूर्ति करे। यही दृष्टि आध्यात्मिक साधक श्रीमद्राजचंद्र ने भी दर्शायी है।" ,97 48 Jain Education International जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 162 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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