SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसे आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में Spiritual Quotient (S.Q.) Development कहा जाता है। आध्यात्मिक विकास का अर्थ आत्मा के विकास से है। जैनदर्शन आत्मवादी दर्शन है, जो आत्मपूर्णता को ही जीवन की सर्वोच्च अवस्था मानता है। इस आत्मपूर्णता की दिशा में किए जाने वाले विकास को ही आध्यात्मिक विकास मानना चाहिए। जैन-शिक्षा-पद्धति में जीवन के निम्न उद्देश्य बताए गए हैं, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं - ★ शिक्षा का प्रथम प्रयोजन है - सम्यग्दर्शन (Right Belief) की प्राप्ति करना। जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति की जीवन-दृष्टि सम्यक् हुए बिना उसका आध्यात्मिक विकास भी सम्भव नहीं होता, अतः शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन व्यक्ति की जीवन जीने की दृष्टि को सम्यक् बनाना है। ★ शिक्षा का द्वितीय प्रयोजन है - भूलों को सुधारने के लिए आत्म-सजगता की वृद्धि करना। ★ शिक्षा का तृतीय प्रयोजन है - अपनी आत्मशक्तियों को वासनाओं के पोषण से हटाकर संयम के क्षेत्र में नियोजित करना। ★ शिक्षा का चरम और अन्तिम प्रयोजन है – व्यक्ति की ज्ञानात्मक एवं विवेकात्मक शक्तियों का विकास करना। जिससे वह हेय-ज्ञेय-उपादेय का भेदकर अपने जीवन-व्यवहार को समीचीन बनाता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति कर सके। जीवन-प्रबन्धन के क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इस विकास से ही सभी प्रकार की प्राप्त परिस्थितियों में समता, समाधि एवं आनन्द के साथ जीने की कला आत्मा में प्रकट होती है। यही कला व्यक्ति को पराश्रित से स्वाश्रित (आत्माश्रित) बनाती है। इससे ही राग-द्वेष, मोह, अज्ञान एवं आसक्ति कम होती है तथा ज्ञाता-दृष्टा रूप साक्षी भाव विकसित होता है। सभी संक्लेश, उद्वेग, कष्ट, संवेग का पूर्ण क्षय करने का मार्ग भी यही है, अतः शिक्षा के इस अन्तिम आयाम तक पहुँचना प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का लक्ष्य होना चाहिए। जैनाचार्यों ने आत्म–विशुद्धि के सिद्धान्तों का प्रतिपादन आध्यात्मिक विकास के लक्ष्य से ही किया है। उनका मूल वाक्य है - ज्ञानस्य फलम् विरति: 4 अर्थात् शिक्षा वही सार्थक है, जो वासनाओं एवं कामनाओं से विरक्ति दिलाकर चारित्रिक एवं नैतिक प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करे। आध्यात्मिक विकास के सम्बन्ध में विशेष चर्चा अध्याय तेरह में की जाएगी। इस प्रकार, यदि व्यक्ति उपर्युक्त षड्-आयामों को लक्ष्य में रखकर शिक्षार्जन करे, तो शिक्षा उसके सर्वांगीण विकास का आधार बन सकती है और वह क्रमशः शारीरिक, संप्रेषणात्मक, बौद्धिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास की प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ अन्ततः आध्यात्मिक विकास की प्राप्ति कर सकता है। 46 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 160 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy