SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (5) भावात्मक विकास (Emotional Development) - जीवन-यात्रा में अनेक भावों का अनुभव होता है, जैसे – क्रोध, भय, घृणा, प्रेम आदि। इन्हें ही आधुनिक मनोविज्ञान में 'संवेग' कहा जाता है। ये संवेग या भाव मूलतया व्यक्तित्व पर पड़ने वाले परिस्थिति के प्रभावों को सूचित करते हैं। जैनाचार्यों की दृष्टि में इनका उत्पत्ति स्थान 'आत्मा' है, जो व्यक्तित्व का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यद्यपि आत्मा एवं उसके भाव दिखाई नहीं देते, तथापि ये व्यक्ति के व्यवहार के शक्तिशाली प्रेरक होते हैं। व्यक्ति का बुरा एवं अच्छा आचरण इन्हीं भावों से संचालित होता है। इन भावों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - 1) विधेयात्मक (Positive), जैसे - विश्वास, श्रद्धा, विनम्रता, क्षमा, सामंजस्य इत्यादि । 2) निषेधात्मक (Negative), जैसे - भय, घृणा, ईर्ष्या, हीनता, छिद्रान्वेषण, आग्रह इत्यादि। भावात्मक विकास का तात्पर्य निषेधात्मक भावों के परिहार एवं विधेयात्मक भावों की अभिवृद्धि से है। जितना-जितना भावात्मक विकास होता है, उतना-उतना व्यक्ति के जीवन-व्यवहार में सन्तुलन, सामंजस्य तथा समन्वय बढ़ता जाता है। आधुनिक-मनोविज्ञान में इसे Emotional Quotient (E.Q.) Development कहा जाता है। ऐसा समझा जाता रहा है कि व्यक्ति की सफलता एवं उपलब्धियाँ I.Q. पर आधारित होती हैं, किन्तु आधुनिक शोधकर्ता गोलमैन (Goleman, 1996) ने यह सिद्ध किया कि व्यक्ति को जो भी सफलताएँ प्राप्त होती हैं, उसका मात्र 20% I.Q. के कारण होता है और 80% E.Q. के कारण। 1 जैन-शिक्षा-पद्धति की यह विशेषता है कि इसमें हमेशा E.Q. के विकास हेतु क्षमा, मृदुता, सरलता, सन्तोष आदि सद्गुणों को अपनाने की प्रेरणा दी गई है। कहा भी गया है - उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। अर्थात् क्रोध को क्षमा, मान को मृदुता, माया को सरलता और लोभ को सन्तोष से जीतना चाहिए। जैनाचार्यों ने भावात्मक विकास के लिए बारम्बार अप्रशस्त (निषेधात्मक) भावों से प्रशस्त (विधेयात्मक) भावों की ओर बढ़ने का निर्देश दिया है और इसके लिए स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षा, प्रतिक्रमण, सामायिक आदि प्रयोगों का विधान किया है। (6) आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development) – भावात्मक विकास का सम्बन्ध बुरे आचरण से अच्छे आचरण, बुरे विचार से अच्छे विचार, अशुभ भावों से शुभ भावों में प्रवेश से है, जबकि आध्यात्मिक विकास का सम्बन्ध, प्रवृत्ति से निवृत्ति, विचार से निर्विचार एवं विभाव से स्वभाव की ओर गमन करने से है। अतः आध्यात्मिक विकास मूलतः भावात्मक विकास का उत्तरोत्तर सोपान है। 159 अध्याय 3 : शिक्षा प्रबन्धन 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy