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________________ जीवन और शिक्षा का अभिन्न सम्बन्ध आहत हुआ । एक उम्र के बीत जाने पर व्यक्ति यह मान लेता है कि उसे जो भी शिक्षा प्राप्त करनी थी, वह उसने कर ली है और अब उसको सिर्फ जीवन जीना । अतः उसका शिक्षा के साथ नाता ही टूट जाता है। यही कारण है कि आज पीढ़ीगत अन्तर (Generation Gap) बढ़ते जा रहा है, जो पिता-पुत्र, सास-बहू, गुरु-शिष्य, अग्रज–अनुज, दादा-पोते जैसे संवेदनशील सम्बन्धों के मध्य मतभेद और मनभेद का कारण सिद्ध हो रहा है। (8) शिक्षा का शहरीकरण आज शिक्षण संस्थान एकान्त स्थानों, वनों और प्राकृतिक स्थलों से दूर होते जा रहे हैं। सामान्यतया शिक्षासंस्थान शहरों के मध्य अथवा शहर के नजदीक किसी राजमार्ग पर होते हैं, जहाँ गाड़ियों और लोगों का निरन्तर आवागमन होने से वायु, ध्वनि आदि प्रदूषणों की समस्या बनी रहती है। इसका परिणाम यह है कि धीरे-धीरे हमारी संस्कृति ही नष्ट होती जा रही है। प्रकृति के बीच रहने, पलने और बड़े होने से शान्ति, सहिष्णुता, सहजता, सादगी, एकाग्रता आदि सद्गुणों का जन्म होता है, जबकि भोगपरक वातावरण में आतुरता, अशान्ति, असहिष्णुता आदि अवगुणों की अभिवृद्धि होती जा रही है। आज इसीलिए विद्यार्थी पाश्चात्य संस्कृति को तेजी से अपना रहा है। ( 9 ) परीक्षा - प्रणाली वर्त्तमान शिक्षा-व्यवस्था की परीक्षा-पद्धति भी पूर्णतया उपयुक्त नहीं है। 62 परीक्षा शब्द 'परि' और 'ईक्षा' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है 'चारों ओर से देखना या परखना' । किन्तु वर्त्तमान परीक्षा - पद्धति व्यक्तित्व की समग्र जाँच करने में अक्षम है। शिक्षार्थी येन-केन-प्रकारेण गाइड, कुंजी, सम्भावित प्रश्नोत्तरी अथवा नकल का प्रयोग कर परीक्षा में सफल हो जाता है। वस्तुतः, इससे उसके व्यक्तित्व का ह्रास ही होता है। (10) सदाचारिता और सद्व्यवहार की उपेक्षा - शिक्षार्थी जीवन में रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, बोलना-सुनना आदि के विषय में नैतिक एवं मानवीय मर्यादाओं के दृढ़ परिपालन पर विशेष जोर नहीं दिया जाता, इसीलिए वर्त्तमान सन्दर्भ में शायर फिराक गोरखपुरी का यह कथन सटीक है - - वर्त्तमान शिक्षा चाहे विद्यार्थी को डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि सब कुछ बना रही है, किन्तु यह निश्चित है कि वह उसे इंसान नहीं बना पा रही। 3 34 सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में। मगर क्या गजब है कि, आदमी इन्सां नहीं होता । (11) अंग्रेजों का अनुवर्त्तन करने वाली शिक्षा आज की शिक्षा-पद्धति लार्ड मेकाले (सन् 1835 ई.) के उस सपने को साकार कर रही है, जिसमें उसने अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पर बल देते हुए कहा था कि “हम भारत में ऐसे व्यक्तियों का वर्ग बनाना चाहते हैं, जो रंग और रक्त में भले ही भारतीय हों, परन्तु खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार तथा बुद्धि में अंग्रेज हों ।” Jain Education International जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 148 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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