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आज शिक्षकों के सम्मुख शिक्षा के सही उद्देश्य का अभाव ही दृष्टिगोचर हो रहा है। यह निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट है - (1) अर्थप्रधान दृष्टिकोण – प्रायः शिक्षकों का उद्देश्य भी अर्थपरक हो गया है, जिससे अध्यापन के लिए आवश्यक स्वतःस्फुरित अभिरुचि में कमी आ गई है। उनकी रुचि अपनी प्रायवेट ट्यूशंस या कोचिंग क्लास में अधिक रहती है, क्योंकि उनमें उन्हें अतिरिक्त आय प्राप्त होती है।
प्राचीनकाल में गुरु की सर्वोपरिता को 'गुरु: साक्षात् परब्रह्म' कहकर स्वीकार किया गया, लेकिन आज शिक्षकों की अर्थलोलुपता के परिणामस्वरूप शिक्षकों की प्रतिष्ठा और सम्मान धूमिल हो रहे हैं। आज विद्यार्थियों और अभिभावकों को शिक्षकों के प्रति न श्रद्धा है और न भक्ति। वे वेतनभोगी भृत्य ही मान लिए गए हैं। यह अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज के ये अर्थ-लोलुपी शिक्षक वास्तव में गुरू-शिष्य के पवित्र और आत्मीय सम्बन्धों को भ्रष्ट और नष्ट करने में लगे हैं। (2) पदोन्नति - प्रायः शिक्षकों का दूसरा प्रमुख उद्देश्य बन चुका है – पदोन्नति। इस हेतु शिक्षकों में प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है, जिससे उनमें ईर्ष्या , संक्लेश, निन्दा, निराशा, कुण्ठा आदि बुराइयाँ बढ़ती जाती हैं। वे अपनी पदोन्नति के लिए कई बार अनैतिक और भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं और लम्बे समय तक राजनीतिक दाँवपेंच भी करते रहते हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि वे अपने पद के साथ न्याय नहीं कर पाते और छात्रों को सही शिक्षा एवं उसके साथ नैतिक-आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी नहीं दे पाते। (3) आरामपसन्दगी – कई लोग इसलिए भी शिक्षक बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें आरामपरक जीवन पसन्द होता है। उनका दृष्टिकोण यह होता है कि एक बार स्कूल/कॉलेज में नौकरी लग जाए, तो प्रतिदिन दो-चार घण्टे ही काम करना पड़ेगा। उनकी दृष्टि में अध्यापक की जिन्दगी ऐसी है, जिसमें बिना पूंजी के अल्प-समय का निवेश करके अधिक आय और सम्मान मिल जाता है।
सदा से ही शिक्षक का व्यक्तित्व शिक्षार्थी को शिक्षा के लिए सजग करता आया है, लेकिन आज शिक्षक की आरामपसन्दगी या भौतिक जीवनदृष्टि शिक्षार्थी को आलसी और लापरवाह बना रही
है।
(4) अन्य घरेलु कार्यों की प्रधानता – कई शिक्षकों की प्रायः यह रोज की ही प्रक्रिया होती है कि वे निजी कार्यों को शिक्षालयों में पूर्ण करते हैं, इसीलिए कई स्कूलों में शिक्षिकाएँ स्वेटर बुनते हुए दिखती हैं, तो शिक्षक बिजली, टेलीफोन का बिल भरने या व्यक्तिगत कार्यों हेतु शिक्षालयों से नदारद पाए जाते हैं, इत्यादि। (5) अवकाशों की प्रचुरता - कई शिक्षक सिर्फ अवकाशों की गणना करते रहते हैं। साथ ही सरकार द्वारा निर्धारित आकस्मिक अवकाशों, मेडीकल अवकाशों आदि का पूरा उपयोग लेते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा-दिवसों के बजाय अवकाश-दिवसों का महत्त्व अधिक होता है। 28
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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