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________________ माता-पिता का यह स्वार्थी दृष्टिकोण, बालकों के आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक विकास में बाधक सिद्ध हो रहा है। माता-पिता यह चाहते हैं कि उनके बालक सिर्फ पारिवारिक दायित्वों का ही निर्वाह करे । उनका प्रयास हो रहा है कि बालक आत्महित, समाजहित, पर्यावरणहित या राष्ट्रहित को अधिक महत्त्व न दे और ना ही सृजनात्मक कार्यों में जुड़े। वह सिर्फ परिवार की परिधि में सिमट जाए और विशेष रूप से पारिवारिक आर्थिक हितों का ही ध्यान रखे। (6) प्रलोभन कई अभिभावक विशेषतः ग्रामीण अथवा पिछड़े क्षेत्रों के निवासी, इसलिए भी बालकों को विद्यालयों में भेजते हैं, जिससे सरकारी सहायता रूप में वस्त्र, खाद्यसामग्री एवं छात्रवृत्ति आदि मिल सके। इस नीति से वे अपने बालकों को अप्रत्यक्षरूप से अकर्मण्य और परावलम्बी बना रहे हैं। (7) लोकलज्जा लोकपरम्परा का निर्वाह करने के लिए भी अभिभावक बच्चों को स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा दिलाने की औपचारिकता पूरी करते हैं । — इसी कारण से आज कई युवक-युवतियाँ पंद्रह-बीस वर्ष शिक्षा लेने के बाद भी यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि हमारे जीवन का सम्यक् उद्देश्य क्या है, क्योंकि बाल्यकाल से लेकर युवावस्था तक उन्हें शिक्षा अवश्य दी गई, लेकिन उसका उद्देश्य उन्हें समझाया ही नहीं गया । (8) शिक्षा की लौकिक उपयोगिता - ऐसा नहीं है कि अभिभावक सर्वथा लापरवाह, स्वार्थी, बालकों से त्रस्त और प्रलोभन की अपेक्षा रखने वाले होते हैं। कई ऐसे भी होते हैं, जो बालकों के सचमुच शुभचिन्तक या हितैषी होते हैं। वे शिक्षा को उपयोगी मानते हैं और इसीलिए बालकों को शिक्षा की प्रेरणा भी देते हैं, लेकिन उनकी दशा कूपमण्डुक जैसी होती है। उनका ज्ञान, अनुभव और रुचि केवल लौकिक क्षेत्र तक ही सीमित होती हैं। वे लौकिक-शिक्षा की प्राप्ति के लिए ही जोर देते हैं और उसके लिए अपना तन, मन एवं धन न्यौछावर कर देते हैं। उनके पास आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यपरक उद्देश्यों का ही अभाव होता है। जैन - परम्परा में प्रसिद्ध श्रीपालचरित्र में यह वर्णन मिलता है कि प्रजापाल राजा द्वारा शिक्षा की लौकिक उपयोगिता जानकर अपनी कन्या सुरसुन्दरी को विद्यार्जन हेतु पण्डित शिवभूति के पास भेजा, किन्तु लोकोत्तर शिक्षार्जन न करने के कारण उसे कई कठिनाइयों गुजरना पड़ा। 58 इस प्रकार, हम पाते हैं कि अधिकांश अभिभावकों के समक्ष बालकों के लिए सम्यक् और समग्र शिक्षा के दृष्टिकोण का अत्यधिक अभाव है। 3.5.3 शिक्षकों की कर्त्तव्यविमुखता आज विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, विद्यालयों और कोचिंग क्लासेस की संख्या और आकार में जिस तेजी से अभिवृद्धि हो रही है, उसी तेजी से शिक्षकों की संख्या भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं, शिक्षक बनने के लिए आवश्यक अर्हताओं का होना भी जरुरी कर दिया गया है। प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं और साक्षात्कार में सफल होने पर ही व्यक्ति को शिक्षक का दायित्व दिया जाता है, फिर भी अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन 141 Jain Education International For Personal & Private Use Only 27 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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