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________________ (11) भविष्य के भोगपरक स्वप्न - आज शिक्षार्थी साधनसम्पन्नता एवं भोगविलासिता से युक्त जीवन जीने के सपने संजोते रहता है। वह चाहता है कि उसके पास बंगला हो, गाड़ी हो, बीवी-बच्चे हों, नौकर-चाकर हों, फर्नीचर हो, आधुनिक उपकरण हो, बैंक-बैलेंस हो इत्यादि, जिनका वह खूब भोगोपभोग कर सके, लेकिन वह यह भी महसूस करता है कि शिक्षा के बिना यह सम्भव नहीं है। अतः वह शिक्षा-प्राप्ति का लक्ष्य बनाता है। प्राचीनयुग में शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य धर्म अथवा मुक्ति बताते हुए कहा गया है - विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम् ।। आज न केवल शिक्षा के मूल उद्देश्य में, अपितु शिक्षा के उप-उद्देश्यों में भी परिवर्तन आ गया है। आज विद्या विद्यार्थी को अहंकारी बना रही है, जिससे उसकी मानवोचित गुणों को बढ़ाने की पात्रता ही नष्ट हो रही है। वह अमानवीय तरीकों से धनार्जन करता है और इस धन से अमर्यादित भोग करता है। भले ही वह अनैतिक कृत्यों से सुख-सुविधा की प्राप्ति और उसका भोग करे, परन्तु वास्तव में इसका परिणाम वासनाजन्य तनाव, अवसाद, कुसंस्कार और दुःख ही निकलता है। इस प्रकार, हम पाते हैं कि भले ही आजकल शिक्षार्थी की अध्ययन-रुचि में अभिवृद्धि हुई हो, लेकिन उसके समक्ष जीवन के समग्र विकास का कोई ठोस उद्देश्य नहीं है। उसमें व्यक्तित्व के आन्तरिक विकास की ललक ही नहीं है, क्योंकि उसकी दृष्टि में नैतिक मूल्यपरक जीवन की तुलना में धन, वैभव , यौवन आदि का मूल्य अधिक है। 3.5.2 अभिभावकों की लक्ष्यविहीनता आज प्रायः सभी अभिभावक अपने बालकों को पढ़ाने के लिए अत्यधिक आतुर, चिन्तित एवं महत्त्वाकांक्षी है। भले ही वे स्वयं न पढ़ सके हों, लेकिन वे अपने बालकों को ऊँची से ऊँची पढ़ाई कराना चाहते हैं। यह भी एक विडम्बना है कि जीवन का अधिक अनुभव लेने पर भी उनके पास बालकों को पढ़ाने का कोई सही उद्देश्य नहीं है। प्रायः अभिभावकों के निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं - (1) प्रतिष्ठापरक दृष्टिकोण (Prestigeous Attitude) - माता-पिता का प्रायः यही चिन्तन होता है कि यदि उनके बच्चे नहीं पढ़ेंगे, तो समाज में उनके परिवार का उपहास होगा। अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए वे बालकों को अध्ययन कराते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि प्रायः माता-पिता बालकों को मूल्यात्मक और आध्यात्मिक शिक्षा दिलाने के प्रति विशेष रुचि नहीं रखते, क्योंकि इन शिक्षाओं से उनकी और बालकों की सामाजिक प्रतिष्ठा में कोई विशेष अभिवृद्धि नहीं होती। 139 अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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