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________________ नियमितता नहीं आ पाती, क्योंकि शिक्षा उनके लिए सिर्फ एक लोकरूढ़ि का निर्वाह करना रह जाती (8) विवशता – कई शिक्षार्थी स्वेच्छा से नहीं पढ़ते, अपितु अभिभावकों के द्वारा जबरदस्ती शिक्षालयों में भेज दिए जाते हैं। ऐसे विद्यार्थी अक्सर अवांछनीय कार्यों, जैसे - हास्य, व्यंग्य, गप-शप, बार, शीशा (हुक्का) आदि में समय और धन का खर्च करते रहते हैं। स्वरुचि का अभाव होने से इनमें माता, पिता और गुरुजनों के प्रति उचित समर्पण भी नहीं रहता और उल्टा, भीतर ही भीतर उनके प्रति विद्वेष की भावना बढ़ती जाती है। कई बार ये विद्यार्थी इनकी आज्ञा और अनुशासन को भी भंग करने से नहीं हिचकिचाते। (9) मौजमस्ती - आज शिक्षा-प्राप्ति का एक प्रयोजन है – परिजनों के अनुशासन से मुक्ति। हर व्यक्ति अपनी इच्छाओं से जीना तो चाहता है, लेकिन परिजनों और समाज के सामने विवश है। अतः शिक्षा-प्राप्ति के बहाने वह स्वच्छन्द और मौज-मस्तीपरक जिन्दगी जीने का अवसर पा लेता है। इसके परिणामस्वरूप किशोरों में शराब, सिगरेट, मांसाहार आदि का सेवन करने, होटलिंग करने, महिला-मित्र बनाने, अश्लील चर्चाएँ करने, अनैतिक यौन सम्बन्ध स्थापित करने, अन्य छात्रों की रेगिंग लेने, शिक्षकों का उपहास करने और इसी प्रकार किशोरियों में सजने-धजने, कॉस्मेटिक्सादि का प्रयोग करने, पुरूष-मित्र बनाने, आधुनिक शैली के वस्त्र पहनने आदि का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि अधिकांश विद्यार्थी बाहर शिक्षा प्राप्त करना अधिक पसन्द करते हैं। तथाकथित सम्पन्न देशों, जैसे – अमेरिका आदि में यह प्रवृति अधिक बलवती है। इससे विद्यार्थी के भीतर पारिवारिक और सामाजिक दृष्टिकोण का भी अभाव होता जा रहा है। (10) आधुनिक बनने का शौक - आज हर व्यक्ति आधुनिक बनना चाहता है। वह यह नहीं सोचता है कि क्या सही है और क्या गलत। उसके मस्तिष्क में एक ही विचार रहता है कि मुझे मॉड (Mod) होना है और इसके लिए वह पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करता है। इस अन्धानुकरण के लिए वह शिक्षा को एक जरिया बना लेता है। कई बड़े-बड़े नामी-गिरामी शिक्षालयों में महँगी फीस देकर भी वह पढ़ता है, क्योंकि उसे आधुनिक बनने या कहलाने का जुनून होता है। आज यह सोच हमारी प्राचीन संस्कृति का सर्वनाश करने जा रही है। तेजी से हमारे आदर्शों और जीवन-मूल्यों का पतन हो रहा है। परिणाम यह है कि आज पाश्चात्य अर्थपरक शिक्षा को प्रोत्साहन मिल रहा है, जबकि प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा का विलोप हो रहा है। ऐसी विचारधारा और शिक्षा का परिणाम है, कि हम शिक्षा की मूल प्रकृति से दूर होकर कृत्रिम जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए हैं। हमारा खान-पान, पहनना-ओढ़ना, चाल-ढाल, सजना-धजना, बोल-चाल आदि में न नैतिकता है और न ही आध्यात्मिकता। 24 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 138 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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