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________________ इसका दुष्परिणाम यह होता है कि ये लोभी विद्यार्थी भविष्य में प्रमादी, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोर आदि बन जाते हैं। इनके व्यक्तित्व का सम्यक् विकास भी नहीं हो पाता। ये स्वावलम्बी नहीं, बल्कि समाज के लिए भाररूप हो जाते हैं। (3) सामाजिक पहचान (Social Recognition) – कई लोग इसलिए भी शिक्षार्जन करते हैं कि समाज में उनकी एक पहचान बन सके। उन्हें भय होता है कि यदि वे अशिक्षित रहे, तो सामाजिक मान्यता नहीं मिलेगी और समाज उनका तिरस्कार करेगा। आज समाज में ऐसे शिक्षित व्यक्तियों की भरमार है, जो प्रतिभापरक के बजाय प्रदर्शनपरक होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी बौद्धिक-शिक्षा के आधार पर समाज में अपना विशिष्ट स्थान तो बना लेते हैं, लेकिन ये सिर्फ बौद्धिक विचारों का ही लेन-देन करते हैं, क्योंकि इनमें विचारों के क्रियान्वयन की अभिरुचि का अभाव होता है। सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना ही इनका लक्ष्य होता है। आज समाज को प्रतिष्ठा प्राप्ति की चाह रखने वालों के बजाय ईमानदार कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है, जिससे समाज और व्यक्ति की सम्यक् प्रगति हो सके। उत्तराध्ययनसूत्र में कपिलकुमार का वर्णन मिलता है, जिन्होंने अपने परिवार की खोई हुई पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए विद्यार्जन का उद्यम किया, लेकिन लक्ष्य गलत होने के कारण उनका चारित्रिक पतन हो गया। जब आत्म-समीक्षा करते हुए इसका भान हुआ, तब उन्होंने अपने लक्ष्य को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ दिया। (4) अहंकार का पोषण (Ego Satisfaction) – कई लोग उच्च शिक्षा की प्राप्ति का प्रयास इसलिए भी करते हैं कि यदि वे अव्वल नम्बर प्राप्त करेंगे, तो समाज उन्हें न केवल मान्यता देगा, अपितु उन्हें एक विशिष्ट सम्मान, आदर, यश और प्रसिद्धि भी देगा। आज व्यक्ति को रोटी से भी ज्यादा भूख मान-सम्मान की होती है। आज लाखों शिक्षित व्यक्ति ऐसे भी हैं, जिन्हें बेरोजगार रहना तो स्वीकार है, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा का व्यामोह होने से कम वेतन में कार्य करना स्वीकार नहीं हैं। इसी प्रकार से कई शिक्षित लोग पद और प्रतिष्ठा के लिए छल , कपट, विश्वासघात आदि अनैतिक आचरण भी कर रहे हैं। कई ऐसे भी हैं, जो शिक्षित होने के अहंकार में अपने से अल्पशिक्षितों का शोषण करते हुए भी देखे जाते हैं। इनमें अधिकार जताने की प्रवृत्ति अधिक होती है। शिक्षितों की यह अहंकारी मनोवृत्ति वस्तुतः उनकी नकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती है, जिससे उनकी प्रगति अवरूद्ध होती है। आज भले ही हम सामाजिक एकता की दुहाई देते हों, लेकिन यह मनोभाव हमारी सामाजिक विषमता को बहुत तेजी से बढ़ा रहा है, क्योंकि अहंकारी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों को कुछ समझते ही नहीं हैं। जैनशास्त्रों में ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं, जिनमें से एक हरिभद्र भट्ट (हरिभद्रसूरि का पूर्व नाम) का है। ये हमेशा अपने साथ सीढ़ी, कुदाली और पट्टा रखते थे, जो सांकेतिक रूप से यह इंगित करते थे कि वादी कहीं भी छिपा हो, वे उस तक पहुँचकर उसे परास्त कर सकते हैं। किन्तु जैन साध्वी 22 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 136 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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