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________________ दुष्परिणामों की चर्चा की जा रही है ★ शिक्षार्थी के उद्देश्य की अस्पष्टता ★ अभिभावकों की लक्ष्यविहीनता ★ शिक्षकों की कर्त्तव्यविमुखता 3.5.1 शिक्षार्थी के उद्देश्य की अस्पष्टता शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है - शिक्षार्थी । आज शिक्षार्थियों की संख्या भले ही बढ़ रही है, लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इनके समक्ष शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट नहीं है। सामान्य रूप से आज शिक्षार्थी के सम्मुख निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं. - (1) आजीविका आज की विडम्बना यह है कि शिक्षा को मात्र उदरपूर्ति का साधन बना दिया गया है। विद्यार्थी को बचपन से ही डॉक्टर, इंजीनियर, सी.ए., एम.बी.ए. आदि बनने की प्रेरणा मिलती रहती है, क्योंकि इससे अच्छी आजीविका उपलब्ध हो जाती है। कहा जा सकता है कि यह परम्परा ब्रिटिश शासन के समय से ही चली आ रही है। विद्यार्थी पढ़-लिखकर डिग्री प्राप्त करता है और नौकरी ढूँढता है । शिक्षार्जन के द्वारा उसका एकमात्र लक्ष्य आर्थिक लाभ प्राप्त करना होने से उसके जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा हो जाती है। ★ सामाजिक विसंगतियाँ ★ प्रशासनिक अव्यवस्था एवं अप्रामाणिकता ★ शिक्षण-पद्धति की समस्याएँ - ऐसे विद्यार्थी का जीवन प्रायः आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की मूल प्रवृत्तियों (Instincts) को सन्तुष्ट करने में ही बीत जाता है और जीवन पशुवत् रह जाता है। कहा भी गया है आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च, सामान्यमेतद् पशुभिः नराणाम् । ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः । । यही कारण है कि आज के शिक्षित व्यक्ति में स्वार्थ और संकीर्णता बढ़ती जा रही है I व्यावसायिक दृष्टिकोण होने से वह अर्थ (पैसे) को जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु मानता है । उसके सम्पूर्ण जीवन का साध्य अर्थ - प्राप्ति बन गया है। पहले वह शिक्षा के लिए अर्थ जुटाता है और बाद में अर्थ के लिए शिक्षा को साधन बनाता है। इससे उसके सम्पूर्ण जीवन के भावनात्मक और संवेदनात्मक पक्ष शुष्क और कठोर बन गए हैं। वह नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों को भूल गया है। उसमें दया, सेवा, शान्ति, सहजता, क्षमा आदि सद्गुणों का अभाव हो गया है। यही नहीं, सम्पत्ति उपार्जन के लिए वह अनैतिक और भ्रष्ट आचरण भी करता है। अर्थ जीवन निर्वाह का साधन है, किन्तु उसी को साध्य मान लेने से प्रायः बिना आध्यात्मिक विकास किए, आजीवन पैसा कमाने के लिए पसीना बहाता रहता है और अन्त में खाली हाथ इस जीवन से विदा हो जाता है। — Jain Education International (2) प्रलोभन आज ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में अधिकांश विद्यार्थी आवास, भोजन, छात्रवृत्ति आदि के प्रलोभन से आकर्षित होकर पढ़ रहे हैं। ऐसे छात्रों को शिक्षा - मूल्यों से कोई सरोकार नहीं होता, क्योंकि इनके विचारों में शिक्षा पाना मात्र औपचारिकता है। 135 अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन For Personal & Private Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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