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1) अनशन
प्रायश्चित्त
3) वृत्ति-परिसंख्यान वैयावृत्य
5) काय-क्लेश
ध्यान
जीवन-प्रबन्धन के लिए तपाचार का महत्त्वपूर्ण योगदान है, यही वह तत्त्व है, जो जीवन-प्रबन्धन की प्रगति को विशेष गति प्रदान करता है। (5) वीर्याचार – आचार का अन्तिम भेद वीर्याचार है। जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत जब विशेष उत्साह एवं उल्लास के साथ विशेष-विशेष पुरूषार्थ किया जाता है, तब वह वीर्याचार कहलाता है। जैनाचार्यों के अनुसार, 'वीर्य' शब्द शक्ति, उद्यम, पुरूषार्थ, पौरुष आदि का सूचक है। पुरूषार्थ हमेशा जीवन-प्रबन्धक की रुचि का अनुसरण करता है। जिस कार्य के प्रति जितनी अधिक रुचि होती है, उतनी ही अधिक शक्ति या पौरुष उस कार्य को पूर्ण करने में लगता है। इसीलिए जैनाचार्यों ने शक्ति को बिना छिपाए जीवन-प्रबन्धन के कार्यों में तत्पर होने का निर्देश दिया है। यह वीर्याचार ही है, जिसके द्वारा चारों प्रकार के आचारों में विशिष्ट चेतना का संचार होता है, इससे जीवन-प्रबन्धन के कार्यों में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होती है।
इस प्रकार, जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के मुख्य तत्त्वों के रूप में इन पंचाचारों का प्रतिपादन किया गया है। इन पंचाचारों के आधार पर जीवन-प्रबन्धन के सभी आयामों - शिक्षा, समय, काया, अभिव्यक्ति, मानसिक-विकार, पर्यावरण, समाज, अर्थ, भोगोपभोग, धार्मिक-व्यवहार एवं आध्यात्मिक विकास का प्रबन्धन किया जा सकता है। ये पंचाचार मूलतः प्रबन्धन के दो मुख्य पक्षों - सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जहाँ ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार का समावेश सैद्धान्तिक पक्ष में होता है, वहीं चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार का समावेश प्रायोगिक पक्ष में होता है। यह विशेष उल्लेखनीय है कि पंचाचार पृथक्-पृथक् होते हुए भी अन्योन्याश्रित हैं, साथ ही समझने के लिए वे भेद रूप होते हुए भी मूलतः अभेद रूप ही हैं।
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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