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________________ चारित्राचार के अन्तर्गत वे सब प्रयत्न शामिल हैं, जिनसे उस साधक की जीवनशैली का सकारात्मक विकास होता है तथा पूर्व कमजोरियाँ क्रमशः संक्षिप्त एवं समाप्त होती हैं। जैनाचार्यों के अनुसार, साधक को बारम्बार आवश्यक एवं अनावश्यक का भेद करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर निर्णय करके प्रयोजनभूत कार्य करे एवं अप्रयोजनभूत कार्य का त्याग करे। इस प्रकार, सकारात्मक चारित्र की चेतना जगाना ही चारित्राचार है। जैनाचार्यों ने भूमिकानुसार चारित्र का पालन करने का निर्देश देते हुए मूलतया चारित्र के दो भेद किए हैं – क) श्रावकाचार एवं ख) श्रमणाचार।55 श्रावकाचार के अन्तर्गत अंतरंग भावशुद्धि के प्रयत्नों के साथ बाह्य में जीवन-प्रबन्धक निम्न कार्य क्रमशः करता है - 1) सप्तव्यसन का त्याग ___3) बारह अणुव्रतों का पालन58 2) मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों का ग्रहण" 4) ग्यारह प्रतिमाओं का वहन श्रमणाचार के अन्तर्गत भी अंतरंग भावशुद्धि के विशेष प्रयत्नों को करता हुआ परिपक्व जीवन-प्रबन्धक पंचमहाव्रतों,०° बारह भिक्षुप्रतिमाओं,81 अष्टप्रवचनमाता आदि बाह्य आचारों का पालन करता है। वस्तुतः, श्रावक एवं श्रमण दशा में चारित्राचार के आधार पर ही भेद है, न कि ज्ञानाचार एवं दर्शनाचार के आधार पर। जो श्रावकरूप में चारित्राचार का पालन करता है, वह प्राथमिक जीवन-प्रबन्धक है तथा श्रमणरूप में चारित्राचार का पालन करने वाला परिपक्व जीवन-प्रबन्धक है। ___ चारित्राचार का जीवन-प्रबन्धन से अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है। जितना-जितना अंतरंग चारित्र शुद्ध होता है, उतनी-उतनी सुख-शान्ति की वृद्धि होती जाती है तथा जितना-जितना बाह्य संयम बढ़ता है, उतना-उतना व्यावहारिक जीवन सुव्यवस्थित होता जाता है, यही जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य है। (4) तपाचार - आचार का चतुर्थ भेद तपाचार है। साध्य की प्राप्ति के लिए जीवन-प्रबन्धक के द्वारा जो विशिष्ट पुरूषार्थ किया जाता है, वही तपाचार है। जैन-साधना के अनुसार, केवल काय-क्लेश करना अथवा उपवास (लंघन) करना ही तप नहीं है, तप तो आत्मविश्वास के जागरण का सूचक है। जब सामान्य चारित्र में आगे बढ़ते हुए साधक में जीवन-प्रबन्धन के लिए विशेष मनोबल का विकास होता है, तब वह तपाचार को अपनाता है। जैनाचार्यों ने तपाचार के अन्तर्गत तप के मुख्यतया दो भेद किए हैं - 1) बाह्य तप एवं 2) आभ्यन्तर तप। जो तप शरीर-आश्रित होता है तथा देहासक्ति के त्याग का प्रतीक होता है, वह बाह्यतप कहलाता है, जबकि वह तप, जो विशुद्ध रूप से आत्म-आश्रित होता है तथा अंतरंग ममत्व के विसर्जन का प्रतीक होता है, आभ्यन्तर तप कहलाता है। इनके बारह भेद होते हैं - 109 अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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