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________________ द्विविध भेद त्रिविध भेद सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन चतुर्विध भेद सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन पंचविध भेद ज्ञानाचार दर्शनाचार चारित्राचार तपाचार वीर्याचार (1) ज्ञानाचार आचार का सबसे प्रथम भेद ज्ञानाचार है। ज्ञानाचार का सम्बन्ध ज्ञान से है। जैनाचार्यों ने ज्ञान को आत्मा का सबसे प्रमुख गुण माना है, यह भी माना है कि इसी से चेतना (आत्मा) परिलक्षित होती है। 17 आम जीवन में भी मृतक की पहचान इसी आधार पर होती है कि उसमें ज्ञानशक्ति या संवेदन शक्ति है अथवा नहीं। ज्ञानशक्ति के अभाव में प्राणी को मृत घोषित कर दिया जाता है। जैनाचार्यों ने ज्ञान के अनेक धर्म (कार्य) बताए हैं जानना, चिन्तन करना, मनन करना, निर्णय करना, स्मरण करना, विचार करना, हेय - ज्ञेय - उपादेय का विश्लेषण करना, उचित-अनुचित का विवेक होना इत्यादि । इन विविध प्रकार के ज्ञान की जीवन- प्रबन्धन में अहम भूमिका को जैनाचार्यों ने भी स्वीकार किया है और ज्ञान की प्राप्ति एवं उसके प्रयोग के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिए हैं, 48 जैसे - — आचार सम्पूर्ण मानवीय व्यवहार या क्रियाकलाप श्रुत धर्म चारित्र धर्म - सम्यकचारित्र 16 सम्यक चारित्र 1) उचित समय पर अध्ययन आदि करना । 2) मन, वचन एवं काया से ज्ञानदाता एवं ज्ञानोपकरण के प्रति विनम्र रहना । 3) अन्तर्मन से ज्ञान के प्रति अनुराग रखना एवं ज्ञानदाता आदि का सत्कार करना । 4) ज्ञानार्जन के समय विविध प्रकार के तपादि करना अर्थात् अनावश्यक कार्यों से निवृत्ति लेकर एकमात्र ज्ञानार्जन में ही तल्लीन रहना । 5) ज्ञानदाता गुरु एवं शास्त्र का नाम नहीं छिपाना अर्थात् प्राप्त ज्ञान का प्रयोग अपनी अहंपुष्टि के लिए नहीं करना । Jain Education International 6) ज्ञानार्जन के समय वर्ण, पद एवं वाक्यों का शुद्धिपूर्वक पठन करना । 7) ज्ञानदाता गुरु एवं शास्त्र के अभिप्राय को अनेकान्तदृष्टि से भलीभाँति समझना इत्यादि। सम्यक्तप जीवन-प्रबन्धन के लिए साधक को न केवल ज्ञान की प्राप्ति करनी होती है, अपितु उसका प्रयोग भी जीवन-व्यवहार में करना होता है। इन दोनों प्रवृत्तियों का समावेश ज्ञानाचार में हो जाता है। ज्ञानाचार के अन्तर्गत जीवन- प्रबन्धक को चाहिए कि वह सर्वप्रथम उस विषय का सम्यक् चयन करे, जिसका उसे ज्ञानार्जन करना है। इस हेतु वह योग्य गुरुजनों एवं शास्त्रों का आलम्बन ले । सत्समागम के पूर्व अपनी चारित्रिक अर्हता का भी विकास करे। आशय यह है कि वह ज्ञानार्जन प्रारम्भ जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 106 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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