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________________ यहाँ एक बात और विचारणीय है कि समाधान की प्राप्ति के लिए सिर्फ सूत्र ही पर्याप्त नहीं है, वरन् पद्धति का भी अपना महत्त्व है। सूत्र के बारे में कहा जा सकता है - It is necessary, but not sufficient कुल मिलाकर, सम्यक् सूत्र के साथ सम्यक् पद्धति ही सम्यक् समाधान की जननी है। जीवन के सन्दर्भ में उपर्युक्त चर्चा का विशिष्ट महत्त्व है, क्योंकि यदि हम जैनआचारमीमांसा के सूत्रों या तत्त्वों का सम्यक्तया प्रयोग करें, तो जीवन में सही फल की प्राप्ति हो सकती है। 2.4.3 जैनआचारमीमांसा के मुख्य तत्त्व जैनआचारमीमांसा प्राचीन एवं प्रामाणिक है, इसके सिद्धान्त व्यापक एवं जीवनस्पर्शी हैं, यह जटिल से जटिल विषयों का सूक्ष्मता के साथ विवेचन करती है। यह जीवन-प्रबन्धन के क्षेत्र में जीवन की प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति, परिणति, व्यवहार, भावना एवं गतिविधि का समीक्षण, संशोधन एवं उदात्तीकरण करती है। मूलतया जैनाचार्यों की दृष्टि में 'आचार' शब्द अपने व्यापक अर्थ में सम्पूर्ण मानवीय व्यवहारों (क्रियाकलापों) को प्रस्तुत करता है। इसमें निःशेष रूप से जीवन की सभी क्रियाएँ (Actions) समाहित हो जाती हैं। जीवन में ये क्रियाएँ सतत चलती रहती हैं और इसीलिए आचरण का क्रम सदैव बना रहता है। आचरण सदैव बने रहने के बावजूद भी प्रतिसमय परिवर्तित होता रहता है। इसका मूल कारण है कि परिवेश में निहित तत्त्व जीवन के सन्तुलन को निरन्तर भंग करते रहते हैं, जिसे पुनः स्थापित करने के लिए जीवन को क्रियाशील होना पड़ता है और यह क्रियाशीलता ही आचार है। अतः मेरी दृष्टि में, आचार का प्रबन्धन ही जीवन का प्रबन्धन है। इस अपेक्षा से जीवन-प्रबन्धन और कुछ नहीं, बल्कि जीवनशैली को सन्तुलित करने की प्रक्रिया है। जैन-आगमों का पर्यालोचन करने पर विविध दृष्टियों से आचार के भेद-प्रभेद प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं - 1) आचार के दो प्रकार - श्रुत धर्म एवं चारित्र धर्म । 2) आचार के तीन प्रकार – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र। 3) आचार के चार प्रकार – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप।45 4) आचार के पाँच प्रकार – ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार। संख्या का भेद होने पर भी सैद्धान्तिक-दृष्टि से इनमें कुछ भी अन्तर नहीं है, केवल विभिन्न तरीकों से आचार को समझाने के लिए भेदों की कल्पना की गई है। इनमें से किसका किसमें समावेश होता है, इसका स्पष्टीकरण निम्न चार्ट के माध्यम से होता है - 105 अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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