SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव है और तब दर्शनशास्त्र एवं आचारशास्त्र की नीतियाँ भी निरर्थक सिद्ध हो जाती हैं। इसे हम भाषा-व्याकरण की निम्न उपमा से भी समझ सकते हैं क्र. शास्त्र उपमा उपमा का प्रयोग WARRIGATION 1) दर्शनशास्त्र अक्षर के समान इसका स्वतन्त्र उपयोग जीवन-व्यवहार में नहीं होता है। 2) आचारशास्त्र शब्द के समान इनका उपयोग शब्दकोष में तो होता है, पर भावाभिव्यक्ति में नहीं। 3) प्रबन्धनशास्त्र वाक्य के समान इनका प्रयोग प्रत्येक संप्रेषण में होता है। STERISM SAREERHETASE प्रबधना आचार ★ आधार-आधेय सम्बन्ध दर्शन, आचार एवं प्रबन्धन के कार्यों में एक क्रम होता है और इस क्रम के आधार पर ही इनका परस्पर सम्बन्ध बनता है। वस्तुतः, जीवन सफलता दर्शन आचार का आधार होता है और आचार प्रबन्धन का आधार होता है। यह प्रबन्धन ही अन्ततः जीवनलक्ष्य की प्राप्ति का आधारस्तम्भ बन जाता है। यदि दर्शन एवं आचार रूपी आधार न हों, तो प्रबन्धन नहीं हो सकता और यदि प्रबन्धन न हो, तो दर्शन एवं आचार को सार्थकता नहीं मिल सकती। अतः जीवन-सफलता के लिए दर्शन, आचार एवं | दर्शन प्रबन्धन का क्रमिक आधार-आधेय सम्बन्ध होना आवश्यक है। * व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध इन तीनों के बीच परस्पर व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध भी है, -दर्शनशास्त्र जहाँ आचारशास्त्र दर्शनशास्त्र का एक अंग है, वहीं प्रबन्धनशास्त्र प्रबंधनशास्त्र आचारशास्त्र का एक विभाग है। इस अपेक्षा से दर्शनशास्त्र का कार्य क्षेत्र अतिविस्तृत है, जिसमें आचारशास्त्र एवं प्रबन्धनशास्त्र दोनों समाविष्ट हो जाते हैं। यद्यपि आचारशास्त्र का क्षेत्र दर्शनशास्त्र की तुलना में कम विस्तृत है, तथापि प्रबन्धनशास्त्र का समावेश इसमें हो जाता है। ★ सामान्य-विशेष सम्बन्ध सामान्य (General) एवं विशेष (Specific) के आधार पर भी इन तीनों को समझा जा सकता है। जहाँ दर्शनशास्त्र पूर्णतया ‘सामान्य' का विवेचन करता है, वहीं आचारशास्त्र एवं प्रबन्धनशास्त्र 'विशेष' को भी प्रकाशित करते हैं। यही कारण है कि आचारशास्त्र और प्रबन्धनशास्त्र में आचार्य, उपाध्याय, श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका आदि व्यक्तिविशेष या पदविशेष के आधार पर भिन्न-भिन्न आचार नियमों का निर्देशन किया गया है। इन दोनों में भी प्रबन्धनशास्त्र अपेक्षाकृत अधिक 'विशेष' होता है। अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन आचारशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy