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________________ प्रकार आचारशास्त्र का सम्बन्ध दैनिक जीवन-व्यवहार से है। वस्तुतः, यह दर्शनशास्त्र का ही प्रायोगिक (Practical) अंग होता है, जो उचित-अनुचित का बोध कराता है। दर्शन एवं आचार का युगल ठीक उसी तरह है, जिस तरह कानून की भाषा में Law and Order, प्रबन्धन की भाषा में Planning and Implementation, विज्ञान की भाषा में Theory and Practical अथवा Principle and Practice हैं। जीवन के क्षेत्र में दर्शन एवं आचार – इन दोनों शब्दों का प्रयोग बहुलता से होता है। एक सामान्य व्यक्ति की भाषा में इन्हें 'विचार' एवं 'व्यवहार' यानि Thought and Behaviour भी कहा जा सकता है। यह सोचना गलत होगा कि दर्शनशास्त्र एवं आचारशास्त्र का मनुष्य-जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः, मनुष्य एक विवेकशील प्राणी इसीलिए कहलाता है, क्योंकि वह अपने जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में दर्शन (विचार) एवं आचार (व्यवहार) का प्रयोग करने में समर्थ है। पशुओं में इस योग्यता का अभाव होता है, जिसके कारण वे आहार, भय, मैथुन एवं निद्रा जैसी मूल-प्रवृत्तियों से ऊपर ही नहीं उठ पाते।' __ दर्शन एवं आचार न केवल मनुष्य-जीवन से सम्बन्धित हैं, अपितु ये परस्पर भी सम्बन्धित हैं, यद्यपि नामकरण की दृष्टि से इनमें भिन्नता अवश्य है, तथापि विषय-वस्तु के आधार पर इनके बीच विभाजन-रेखा खींच पाना आसान नहीं है। वस्तुतः, ये दोनों परस्पर एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार - जब हम एक की गहराई में प्रवेश करते हैं, तो निश्चित ही सीमा का उल्लंघन करके दूसरे में हमें प्रवेश करना होता है। उनके अनुसार, जब तक हमें दर्शन के द्वारा सत् (वस्तु) के स्वरूप का बोध नहीं होता, तब तक हमें आचरण का सम्यक् मूल्यांकन भी नहीं हो पाता। जीवन के सम्यक् आचार का निर्धारण करने के पूर्व विश्व के यथार्थ स्वरूप का बोध होना आवश्यक है। यही वह बिन्दु है, जहाँ दर्शन एवं आचार परस्पर मिलते हैं। अतः कहा जा सकता है कि दर्शन एवं आचार को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये दोनों एक-दूसरे से अतिनिकट हैं। जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र के सह-सम्बन्ध की व्याख्या के दो आधार हैं - 1) भेद दृष्टि 2) अभेद दृष्टि भेद दृष्टि के अनुसार, दर्शन एवं आचारशास्त्रों का परस्पर आधार-आधेय सम्बन्ध है। दर्शन वस्तु-स्वरूप पर विचार करता है, तो आचार जीवन-व्यवहार के आदर्शों/मूल्यों का विचार करता है। दर्शन ‘क्या है' को सूचित करता है, तो आचार ‘क्या होना चाहिए' को प्रतिपादित करता है। इस प्रकार, आचारशास्त्र दर्शनशास्त्र पर अवलम्बित है। मूलतः दर्शनशास्त्र व्यापक है एवं आचारशास्त्र उसमें व्याप्य है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी कहा है कि सभी आचारशास्त्र किसी न किसी दार्शनिक सिद्धान्त पर आश्रित अवश्य होते हैं। जैनदृष्टि भी इस बात पर सहमत है कि सम्यग्दर्शन ही सम्यक्चारित्र का जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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