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________________ भी सन्तुलित शिक्षा के दो पक्ष बताए गए हैं 243 – ग्रहणात्मक-शिक्षा (सैद्धान्तिक-शिक्षा) और आसेवनात्मक-शिक्षा (प्रायोगिक-शिक्षा)। शिक्षा-प्रबन्धन का विशेष वर्णन अध्याय तीन में किया जाएगा। (2) समय-प्रबन्धन - किसी भी वस्तु का कोई मूल्य अवश्य होता है, लेकिन समय अनमोल है। कहावत भी है - Money is valuable, but time is invaluable | भगवान् महावीर ने समयमात्र के लिए भी प्रमाद नहीं करने का उपदेश दिया है – 'समयं गोयम! मा पमायए'। वस्तुतः, हर व्यक्ति को नियत आयु मिलती है और इस आयु का परिमाण ही जीवन की समय-सीमा है। इसमें ही जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है, परन्तु व्यक्ति अक्सर समय चूक जाता है, अतः जैनदर्शन में कहा गया है कि व्यक्ति को उचित समय पर उचित कार्य करना चाहिए245 – काले कालं समायरे। इस उद्देश्य की पूर्ति समय-प्रबन्धन के माध्यम से की जा सकती है, जिसका विस्तार से वर्णन अध्याय चार में किया जाएगा। (3) शरीर-प्रबन्धन – शरीर एक ऐसा सहयोगी है, जिसके साथ आत्मा का सम्बन्ध जन्म से मृत्यु तक बना रहता है। यह साधन के रूप में व्यक्ति के विविध पुरूषार्थों में सहगामी होता है। भारतीय दार्शनिकों ने आध्यात्मिक पुरूषार्थ के लिए इसे साधन मानते हुए कहा भी है46 – 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं'। इसका प्रयोग आवश्यक और अनावश्यक दोनों प्रवृत्तियों में हो सकता है। अतः इसका प्रबन्धन होना आवश्यक है, जिससे यह जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक नहीं, अपितु साधक सिद्ध हो सके। यह प्रबन्धन ही शरीर-प्रबन्धन कहलाता है, जिसका वर्णन अध्याय पाँच में किया जाएगा। (4) अभिव्यक्ति (वाणी)-प्रबन्धन – वाणी एक ऐसी योग्यता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने भावों को प्रकट करता है। मानव में इस योग्यता का विकास सर्वाधिक है। जैनधर्मदर्शन में इस वाचिक-योग्यता का कई प्रकार से विश्लेषण किया गया है और इस शक्ति के सही एवं गलत दोनों ही प्रयोगों के परिणामों को भी दर्शाया गया है। अभिव्यक्ति-प्रबन्धन के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी वाणी का सम्यक् और संयमित प्रयोग कर सकता है। इसका वर्णन अध्याय छह में किया जाएगा। (5) तनाव एवं मनोविकार-प्रबन्धन - वह शक्ति, जिसके माध्यम से व्यक्ति चिन्तन, मनन, विचार आदि करता है, मन कहलाती है। वर्तमान युग में व्यक्ति के बौद्धिक और मानसिक विकास का आधार 'मन' है। मन का नकारात्मक प्रयोग होने पर तनाव, अवसाद आदि मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है, जिससे मानव-जीवन दुःखमय और भारभूत हो जाता है। अतः मन पर नियन्त्रण आवश्यक है। मन का सकारात्मक प्रयोग करने पर यही मुक्ति का साधन भी बन जाता है। कहा भी गया है कि - "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः” अर्थात् मन ही मनुष्य के बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण है।247 अतः प्रत्येक मनुष्य को मन-प्रबन्धन की नितान्त आश्यकता है। मन-प्रबन्धन का आशय एक ऐसी कला से है, जिससे मानव अपने तनाव और मानसिक विकारों का सम्यक् प्रबन्धन कर सके। इसकी चर्चा अध्याय सात में विस्तार से की जाएगी। 80 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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