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________________ सामर्थ्य का आशय व्यक्ति की क्षमता' से है, जिसकी अभिव्यक्ति तीन साधनों से होती है - मन (Mind), वचन (Speech) और काया (Body)। इन योग्यताओं को प्रबन्धित करके ही व्यक्तित्व का प्रबन्धन सम्भव होता है, जिसे 'साधक-प्रबन्धन' कहा जाता है। इसके अन्तर्गत शिक्षा-प्रबन्धन, समय-प्रबन्धन, शरीर–प्रबन्धन, अभिव्यक्ति (वाणी)-प्रबन्धन और तनाव एवं मनोविकार-प्रबन्धन आते हैं। (2) साधन-प्रबन्धन – जीवन के वे पहलू, जिनके माध्यम से साधक अपने साध्य की प्राप्ति करता है, साधन कहलाते हैं। साधन दो प्रकार के होते हैं - आन्तरिक और बाह्य। इन दोनों साधनों का सम्यक प्रबन्धन साधन-प्रबन्धन है। (क) आन्तरिक साधन-प्रबन्धन (Internal Means Management) - आन्तरिक साधन-प्रबन्धन से हमारा तात्पर्य उन साधनों के प्रबन्धन से है, जो व्यक्ति में ही होते हैं। इसमें व्यक्ति की चेतना, व्यक्ति का शरीर और शरीर के मन, वाणी, इन्द्रिय, हाथ-पैर आदि सभी उपकरण समाहित हैं। जब हम इस आन्तरिक साधन-प्रबन्धन की बात करते हैं, तो हमें इन तीनों पर ध्यान देना होता है। जहाँ तक चेतना के प्रबन्धन का प्रश्न है, वह एक आध्यात्मिक पहलू है और उसका प्रशिक्षण भी आध्यात्मिक दृष्टि से ही संभव होता है। इसमें मुख्य रूप से चेतना को संक्लेश अर्थात् तनावों से मुक्त रखकर समत्व की स्थिति में लाने हेतु प्रशिक्षित और परिष्कृत करने का प्रयास किया जाता है। जहाँ तक शरीर के प्रबन्धन का प्रश्न है, वस्तुतः उसके तीन पक्ष हो सकते हैं। पहला व्यक्ति की दैहिक क्षमता का पूर्ण, लेकिन सम्यक् दिशा में प्रयोग, दूसरा उन परिस्थितियों से शरीर को बचाने का प्रयास, जो उसकी शारीरिक क्षमता को अवरूद्ध करती हैं और तीसरा दैहिक ऊर्जा की सम्यक् सम्पूर्ति का प्रयास, जो व्यक्ति के कार्य करने में नष्ट होती है। जहाँ तक साधन रूप उपकरणों के प्रबन्धन का प्रश्न है, उनका प्रयोग इस प्रकार होना चाहिए कि व्यक्ति की दैहिक और चैतसिक-क्षमता का दोहन कम से कम हो और फल अधिक से अधिक मिल सके। साथ ही, उनका उपयोग करने से उपभोगकर्ता और दूसरे प्राणियों पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। इस प्रकार, आन्तरिक साधन-प्रबन्धन में मुख्य रूप से चैतसिक-समत्व, दैहिक–सतुलन और दैहिक-उपकरणों का सम्यक् उपयोग - ये तीनों ही आवश्यक हैं। अंतरंग साधन वस्तुतः साधक की ही योग्यताएँ हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध साधक के व्यक्तित्व से जुड़ा है, अतः प्रस्तुत शोध-कार्य में इनका प्रबन्धन साधक-प्रबन्धन अर्थात् शिक्षा, समय, शरीर, वाणी और मन-प्रबन्धन के अन्तर्गत समाविष्ट किया गया है। 77 अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ 77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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