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1.7.3 वर्त्तमान विसंगति : मुख्य कारण
वर्त्तमान परिवेश में ‘पुरूषार्थ - चतुष्टय' के सापेक्ष दो प्रमुख विसंगतियाँ विद्यमान हैं, जो इस प्रकार हैं 1) अधिकतम व्यक्तियों के जीवन में केवल अर्थ और काम के पुरूषार्थ ही सर्वस्व हैं तथा धर्म और मोक्ष के पुरूषार्थों का कोई स्थान नहीं है। 2) कुछेक व्यक्तियों के जीवन में धर्म और मोक्ष के पुरूषार्थ का स्थान तो है, किन्तु पर्याप्त रूप से नहीं है। वहाँ एक ओर अर्थ एवं काम का अतिरेक है, तो दूसरी ओर धर्म एवं मोक्ष अत्यल्प । इससे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय, नैतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में मनुष्य को अवांछनीय विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा है। जीवन - प्रबन्धक को चाहिए कि वह चारों पुरुषार्थों की सम्यक् समझ उत्पन्न करे और देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार जीवनशैली में इनका समुचित एवं सन्तुलित समावेश करे। दूसरे शब्दों में कहें, तो इन चारों का जीवन में उचित प्रबन्धन करे ।
आगे, जैनआचारमीमांसा के आधार पर इनके प्रबन्धन के उपायों की चर्चा पृथक्-पृथक् अध्यायों में की जाएगी।
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अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ
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