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1.6 जीवन-प्रबन्धन की मूलभूत प्रणाली
जीवन - प्रबन्धन की सबसे बड़ी बाधा है जीवन की जटिलता का होना । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेकानेक परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं। सामान्य मानव का जीवन इन परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फँस जाता है । प्राप्त परिस्थितियों में निषेधात्मक विचार और निषेधात्मक व्यवहार से जीवन असन्तुलित, असमन्वित और अनियंत्रित हो जाता है, इससे जीवन शारीरिक पीड़ा और मानसिक दुःख का सतत प्रवाह बना रहता है ।
जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य एक ऐसी प्रणाली का विकास करना है, जिससे जीवन सन्तुलित, सुव्यवस्थित और समन्वित हो जाए। इस प्रकार की प्रबन्धन - प्रणाली सभी तीर्थंकर परमात्माओं के जीवन में परिलक्षित होती है। आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिन्होंने गृहस्थ, श्रमण एवं अरिहंत इन तीनों अवस्थाओं में अपनी भूमिकानुसार सुप्रबन्धित जीवन जीया । गृहस्थावस्था में उन्होंने एक ओर आत्म-साधना की और दूसरी ओर राजा योग्य कर्त्तव्यों का भी निर्वाह किया। उनके निर्देशन में सामाजिक - विकास के अनेक उपक्रम हुए। उन्होंने जीवन के विविध विभागों की स्थापना की, जैसे शिक्षा, शरीर, परिवार, व्यापार, राजनीति आदि। फिर इनके विकास हेतु प्रत्येक का पृथक्-पृथक् प्रबन्धन भी किया और परस्पर समन्वयन भी । उचित समय पर उन्होंने श्रमण-जीवन अंगीकार किया और उत्कृष्ट आत्म-साधना कर अरिहंत अवस्था की प्राप्ति की । तत्पश्चात् उन्होंने श्रमण श्रमणी श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की और
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चरण-दर-चरण आगे बढ़ते हुए चरम आत्म-विकास करने का मार्गदर्शन दिया। जीवन -प्रबन्धन की मूलभूत प्रणाली के प्रयोग का आदर्श उदाहरण है ।
वस्तुतः, यह
इस प्रणाली को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है.
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(1) जीवन का विभागीकरण सर्वप्रथम जीवन में प्राप्त होने वाली परिस्थितियों के आधार पर जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं की पहचान करके उन्हें स्वतन्त्र विभाग रूप में समझना चाहिए, जैसे शिक्षा, परिवार, धर्म आदि ऐसे पहलू हैं, जिन्हें मानव अनदेखा नहीं कर सकता। अतः जिस प्रकार किसी कम्पनी के समग्र प्रबन्धन हेतु उसमें भिन्न-भिन्न विभागों की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार जीवन के समग्र प्रबन्धन हेतु जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को पृथक् पृथक् विभाग के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
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(2) विभागों का स्वतन्त्र प्रबन्धन जीवन का विभागीकरण करने के पश्चात् प्रत्येक विभाग ( पहलू) की आवश्यकता और महत्त्व को समझकर उसकी स्वतन्त्र समीक्षा करनी चाहिए और उसमें आने वाली कमियों या बाधाओं को पहचानकर उनसे उभरने के सिद्धान्त सुनिश्चित करने चाहिए। इसे हम विभागीय-प्रबन्धन की प्रक्रिया भी कह सकते हैं । इस प्रक्रिया में विभागों की प्राथमिकता के आधार पर उनका पृथक्-पृथक् प्रबन्धन करना चाहिए ।
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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