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________________ ★ जीवन-प्रबन्धन के माध्यम से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का सन्तुलित, समन्वित और समग्र विकास सम्भव है। यद्यपि आज व्यक्तित्व विकास का मापदण्ड बदल गया है और केवल देह, वाणी और अन्य भौतिक सामग्रियों के विकास को ही विकास माना जा रहा है। यह केवल अपनी कमजोरियों को छिपाने और योग्यताओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने का भ्रामक तरीका है। इन भ्रान्तिपूर्ण स्थितियों से बचकर जीवन-प्रबन्धन के माध्यम से व्यक्तित्व का वास्तविक विकास किया जा सकता है। ★ जीवन-प्रबन्धन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष आत्मिक-शान्ति की प्राप्ति है। यह भौतिक सुख-सुविधाओं से प्राप्त नहीं हो सकती और न ही इसे बाजार से क्रय किया जा सकता है। इसका शिक्षण-प्रशिक्षण भले ही दिया जाए, लेकिन हस्तान्तरण नहीं किया जा सकता, बलात् कोई दूसरा इसे छीन भी नहीं सकता। आशय यह है कि आत्मिक-शान्ति या आत्मिक-आनन्द सिर्फ जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया से ही प्राप्त हो सकता है। ★ जीवन-प्रबन्धन की साधना से प्राप्त आत्मिक-शान्ति वह पूंजी है, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति के लिए लाभप्रद है। यह वह रक्षा कवच है, जो विषम परिस्थितियों में भी साधक को विकल एवं विफल नहीं होने देता। यह उस अधिकारी के समान है, जो साधक रूपी अधीनस्थ को प्रतिक्षण सम्यक् और स्व–पर हितकारी निर्देश देता है, लेकिन कभी भी उसका शोषण नहीं करता। सार रूप में कहा जा सकता है कि जीवन–प्रबन्धन हमारे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। 1.5.3 जीवन-प्रबन्धन के उद्देश्य जीवन-प्रबन्धन वह प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य वैयक्तिक जीवन का वास्तविक विकास करना है, क्योंकि वैयक्तिक-विकास होने से परिवार, जाति, समाज, राष्ट्र और विश्व का विकास स्वतः हो जाता है। आशय यह है कि व्यक्ति के सुधार में ही जग का सुधार है। कहा जा सकता है कि जीवन-प्रबन्धन, पर-सुधार की कल्पनाओं, आकांक्षाओं और इच्छाओं की अपेक्षा स्व-सुधार के प्रयत्नों को महत्त्व देता है। वैयक्तिक विकास की दृष्टि से भी जीवन-प्रबन्धन का लक्ष्य व्यक्ति को काल्पनिक ऊँचाइयों के शिखर तक पहुँचाना नहीं है, अपितु यथार्थ के धरातल पर सुखी जीवन जीने की कला सिखाना है। वह जीवन किसी काम का नहीं, जिसमें पद, प्रतिष्ठा, पैसा इत्यादि मिलने पर भी निश्चिन्तता और निराकुलता न हो, इसीलिए जीवन-प्रबन्धन का विशुद्ध लक्ष्य व्यक्ति को काल्पनिक कामनाओं और वासनाओं में उलझाना नहीं, अपितु सुव्यवस्थित जीवन जीते हुए आत्म–शान्ति की अनुभूति कराना है। भारतीय-दर्शनों और विशेषरूप से जैनधर्मदर्शन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि दुःख और तनाव का मूल कारण 'मोह' है23 और इसीलिए जीवन-प्रबन्धन का परम साध्य मोह से मुक्त दशा की प्राप्ति कराना है, जिसे 'मोक्ष' कहा जाता है। 24 जैनाचार्यों ने मोह को स्पष्ट करते हुए कहा अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ 63 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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