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इस प्रकार, ध्यानशतक में चित्त की चंचलता के तीन प्रकार माने गए हैं. भावना 2. अनुप्रेक्षा और 3. चिन्ता। इन तीनों का परिचय निम्न है1. भावना - जिस वस्तु का निरंतर चिन्तन करने से आत्मा उससे भावित होती है, उसे भावना कहते हैं। विद्वानों का कथन है कि अनित्यत्व, मैत्री आदि भावनाएं चित्त को ध्यान में स्थिर करने के लिए कारणभूत बनती हैं।52 2. अनुप्रेक्षा - किसी अनुभूति के बाद उस पर विचार करना, अथवा किए हुए अनुभव का पुनः स्मरण करके उसके अनुरूप चिन्तन-मनन करना, उसे अनुप्रेक्षा कहते
3. चिन्ता - चिन्ता, अर्थात् भावना और अनुप्रेक्षा रहित मन की अवस्था। ध्यान से पूर्व विचलित चित्त से होने वाला जीवादि तत्त्वों का चिंतन चिन्ता है।54
चिन्ता, भावना और अनुप्रेक्षा- ये तीनों चित्त की संचरणशील अवस्था में होती हैं, जबकि ध्यान चित्त की स्थिर अवस्था में होता है।
बृहद्कल्पसूत्र में चित्त की तीन अवस्थाओं का वर्णन है- 1. ध्यानावस्था 2. ध्यान्तरिका और 3. तद्विपरीत।55
तत्त्वानुशासन के अन्तर्गत कहा गया है कि स्वसंवीति से रहित एक चिन्तात्मक अथवा चिन्ता से युक्त जो चित्त की वृत्ति है, उसका अभाव हो जाना ही चित्तवृत्ति-निरोध है। यह निरोध ही ध्यान है तथा उसका अभाव या स्वसंवीति का अभाव ही चिन्ता है।
53 (क) भावना चाप्यनुप्रेक्षा चिन्ता वा तत् त्रिधामतम् ।। – अध्यात्मसार, अध्याय- 16. (ख) ध्यानदीपिका, श्लोक 66.
" प्रस्तुत सन्दर्भ 'ध्यानविचार' पुस्तक से उद्धृत, अनु.- नैनमल सुराणा, पृ. 9.
55 झाणं नियमा चिन्ता, चिन्ता भइया उ तीसु ठाणेसु।
झाणे तदंतरम्मि उ, तविवरीया व जा काई।। - बृहद्कल्पसूत्र, गाथा 1641. 56 अभावो वा निरोधः स्यात स च चिन्तातरव्ययः ।
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