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________________ हे भव्यों ! कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चिन्तन मत करो, जिससे आत्मा निज स्वरूप में स्थिर हो जाए ; यह आत्मा में लीनता ही परम ध्यान है। चेतना में उपयोग की धारा स्थिर, प्रदीप की लौ के समान एक ही विषय पर स्थित रहे और विषयान्तर को प्राप्त न हो- ऐसी अवस्था को ध्यान कहते हैं।49 योगबिन्दु ग्रन्थ और षोडशकवृत्ति में ध्यान के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि एक पदार्थ के आलम्बन में रहने वाले चित्त का, अथवा समान पदार्थ में रहे हुए चित्त का अन्य पदार्थ के विषय से रहित जो प्रवाह है, वह ध्यान है। ___ प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान की परिभाषा - झाणज्झयण, अर्थात् ध्यानशतक में सामान्यतया चित्तवृत्ति के स्थिर होने को ही ध्यान कहा गया है। दूसरे शब्दों में, मन की परिणति जब एकाग्र बन जाती है, अथवा वह निर्विकल्पदशा में गमन करने लगती है, तो वही ध्यान बन जाती है। अन्य शब्दों में, अध्यवसायों (मनोभावों) की स्थिरता को ध्यान कहा गया है। इसके विपरीत, जब मन अस्थिरता एवं चंचलता से युक्त होता है, तब चेतना की इस चंचल-वृत्ति को भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्तन कहा जाता है। (ख) समणसूत्र- 18. 49 उपयोगे विजातीय-प्रत्ययाऽव्यवधानभाक। __ शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माऽऽभोग समन्वितम् ।। - द्वात्रिंशिका, दसवीं का पहला. 50 (क) शुभैकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः । स्थिर प्रदीप सद्दशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम्।। - योगबिन्दु, श्लोक- 362. (ख) एकालम्बनं चित्तं ....... ...... || - षोडशकवृत्ति- 12/14. 51 (क) जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता।। - ध्यानशतक, गाथा- 2. (ख) बृहद्कल्पसूत्र, गाथा- 1541/1452. (ग) एकचिन्तानिरोधो, यस्तद्ध्यानं भावनाः पराः। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा ध्यानसन्तानमुच्यते।। - ध्यानदीपिका, श्लोक 66, पृ 4. (घ) चिन्ता-भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायः। - ध्यानविचार, पृ 7. (ङ) ध्यानस्तव, श्लोक 6. (च) स्थिरमध्यवसानं .................. चिन्ता वा तस्त्रिधामतम् ।। - अध्यात्मसार - 16/1. (छ) एकचिन्तानुरोधो ................ तज्झैरभ्युपगम्यते।। - ज्ञानार्णव- 23/14, पृ 413. 52 सद्धर्मध्यानसंधानहेतवः श्रीजिनेश्वरैः। मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्त्रो भावनाः पराः ।। – शान्तसुधारस, प्रकरण 13, श्लोक 1. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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